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नहीं होते, तब तक वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान सयोगी
केवली और अयोगी केवली की अपेक्षा से दो प्रकार का होता है। 502. सिद्ध केवलज्ञान किसे कहते हैं? __उ. सर्वमुक्त सिद्धों का ज्ञान सिद्ध केवलज्ञान है। इसके दो प्रकार हैं
(1) अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान (2) परम्पर सिद्ध केवलज्ञान। 503. केवलज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया क्या है? उ. साधक सर्वप्रथम आठ कर्मों की जो कर्मग्रन्थि है, उसे खोलने के लिए
उद्यत होता है। वह जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया, उस मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को क्रमश: सर्वथा क्षीण करता है। फिर शेष तीन घाति कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरावरण, तिमिर रहित, विशुद्ध, लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन
को उत्पन्न करता है। 504. मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान में अभेद क्या है? उ. जैसे मन:पर्यवज्ञान अप्रमत्त साधु के होता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त
यति के होता है। मन:पर्यवज्ञान विपर्ययज्ञान नहीं होता, केवलज्ञान भी विपर्ययज्ञान नहीं
होता। 505. संक्षेप में ज्ञान के कितने प्रकार हैं?
उ. संक्षेप में ज्ञान के दो प्रकार हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। 506. प्रत्यक्ष ज्ञान किसे कहते हैं? __ उ. जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में दूसरे का वशवर्ती नहीं है, वह प्रत्यक्षज्ञान है। वह
दो प्रकार का है
(1) आत्म प्रत्यक्ष और (2) इन्द्रिय प्रत्यक्ष। 507. आत्मप्रत्यक्ष किसे कहते हैं? उ. आत्मा के द्वारा इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को हाथ में रखे हुए आंवले की
भांति जानने या देखने वाला ज्ञान आत्मप्रत्यक्ष है। 508. इन्द्रिय प्रत्यक्ष किसे कहते हैं? उ. इन्द्रियों से साक्षात्कार होने पर किसी अन्य माध्यम के बिना जो ज्ञान होता
है, वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है।
114 कर्म-दर्शन