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मन:पर्यवज्ञान पर्याप्त के होता है अपर्याप्त के नहीं। मन:पर्यवज्ञान सम्यक् दृष्टि के होता है । मिथ्यादृष्टि, सम्यक्
मिथ्यादृष्टि के नहीं। मन:पर्यवज्ञान संयत के होता है असंयत और संयता
संयत के नहीं। मन:पर्यवज्ञान अप्रमत्त के होता है प्रमत्त के नहीं।
मन:पर्यवज्ञान ऋद्धि प्राप्त के होता है अऋद्धि प्राप्त के नहीं। 492. मनःपर्यवज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखता है या नहीं?
उ. श्रुतज्ञानी की तरह मन:पर्यवज्ञानी भी अचक्षुदर्शन से देखता है। 493. अवधि और मनःपर्यव ज्ञान किस-किस को हो सकता है? उ. अवधिज्ञान संयत, असंयत और संयतासंयत सभी को हो सकता है। मनः
पर्यवज्ञान केवल संयत को ही होता है। 494. अवधिज्ञान व मन:पर्यव ज्ञान में क्या अन्तर है?
उ. चार भेद से अवधि व मन:पर्यव की भिन्नता की प्रतीति होती है(1) विशुद्धिकृत-अवधिज्ञानी जिन मनोद्रव्य के पर्यायों को जानता है, उन्हीं
को मन:पर्यवज्ञानी विशुद्धतर जानता है। (2) क्षेत्रकृत-अवधिज्ञानी अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर समग्र लोक
को जानता है जबकि मन:पर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र तक ही सीमित है और उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही मनोगत भावों को जानता है। स्वामीकृत—अवधिज्ञानी संयत, असंयत, संयतासंयत कोई भी हो सकता
है, जबकि मन:पर्यवज्ञान का अधिकारी केवल संयत ही होता है। (4) विषयकृतभेद-अवधिज्ञानी का विषय रूपी द्रव्य और उसके पर्याय हैं।
मन:पर्यव का विषय है—मनोवर्गणा का अनन्तवां भाग।
इनके अतिरिक्त दो अन्तर और भी हो सकते हैं* अवधिज्ञान पर-भव में जाते समय साथ में जा सकता है जबकि
मन:पर्यवज्ञान एक ही भव में रहता है। * सम्यक्त्व भ्रष्ट होने पर अवधिज्ञान विभंगज्ञान में बदल सकता है जबकि
मन:पर्यवज्ञान कभी भी विपरीत नहीं होता।
(3)
1. यहाँ अप्रमत्त से तात्पर्य—इस ज्ञान की प्राप्ति सातवें गुणस्थान में होती है। 2. आम\षधि आदि लब्धियां।
112 कर्म-दर्शन