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487. द्रव्यत: मन:पर्यवज्ञान का विषय क्या है? उ. द्रव्यतः द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी-मनोवर्गणा के अनन्त
अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानता देखता है। विपुलमति मनः पर्यवज्ञानीउन स्कन्धों को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और उज्ज्वलतर रूप से
जानता देखता है। 488. क्षेत्रत: मन:पर्यवज्ञान का विषय क्या है? उ. क्षेत्रतः क्षेत्र की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी-नीचे की ओर रत्नप्रभा
पृथ्वी के ऊर्ध्ववर्ती क्षुल्लक प्रतर से अध:स्तन क्षुल्लक प्रतर तक अर्थात् समभूतल पृथ्वी से एक हजार योजन तक देखता है। ऊपर की ओर ज्योतिष्चक्र के उपरितल तक अर्थात् समभूतल पृथ्वी से 900 योजन ऊपर तक देखता है। तिरछे भाग में मनुष्य क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र तक पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तर्वीपों में रहे हुए पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति मनः पर्यवज्ञानी उस क्षेत्र से अढ़ाई अंगुल अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर
और उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता देखता है। 489. कालत: मनःपर्यवज्ञान का विषय क्या है? उ. काल की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी-जघन्यतः पल्योपम के
असंख्यातवें भाग को, उत्कृष्टतः भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग, अतीत और भविष्य को जानता देखता है। विपुलमति मनः पर्यवज्ञानीउस कालखंड को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और उज्ज्वलतर जानता
देखता है। 490. भावत: मन:पर्यवज्ञान का विषय क्या है? उ. भाव की दृष्टि से ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी अनन्त भावों को जानता-देखता
है। सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी उन भावों को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर और
उज्ज्वलतर जानता-देखता है। 491. मन:पर्यवज्ञान किसके होता है? उ. मन:पर्यवज्ञान मनुष्य के होता है अमनुष्य के नहीं।
मन:पर्यवज्ञान गर्भज के होता है संमूर्छिम के नहीं। मन:पर्यवज्ञान कर्मभूमिज के होता है अन्तर्वीपज के नहीं। मन:पर्यवज्ञान संख्येय वर्षायुष्क के असंख्येय वर्षायुष्क होता है
अकर्मभूमिज के नहीं।
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कर्म-दर्शन 111