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द्रव्यतः-एक पुरुष की अपेक्षा सादि-सांत है और अनेक पुरुषों की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। क्षेत्रतः-पांच भरत और पांच ऐरवत की अपेक्षा सादि-सांत है, महाविदेह की अपेक्षा अनादि अनन्त है। कालतः-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की अपेक्षा सादि-सान्त है। जहाँ काल के विभाग नहीं है, अर्थात् नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी काल की अपेक्षा अनादि सान्त है। भावतः-तीर्थंकरों ने जिस समय जो भाव प्रकट किये उन भावों की अपेक्षा वह सादि-सान्त है। क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि मोक्षगामी भव्य की अपेक्षा सादि
सांत है, अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त है। 454. श्रुतज्ञान के नाश के क्या कारण हैं? उ. श्रुतज्ञान के नाश के पांच कारण हैं—(1) मिथ्यात्व, (2) भवान्तर गमन,
(3) केवलज्ञान की प्राप्ति, (4) रुग्ण शरीर, (5) प्रमाद आदि। 455. अवधिज्ञान किसे कहते हैं? उ. (1) अवधि का अर्थ है-मर्यादा। जिस ज्ञान की मर्यादा है केवल रूपी
द्रव्यों को जानना, वह ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। (2) एकाग्रता की विशिष्ट स्थिति में संसार के मूर्त पदार्थों को जानने वाला
ज्ञान अवधिज्ञान है। (3) इन्द्रिय मन की सहायता के बिना आत्मा से होने वाला मूर्त पदार्थों का
ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है। 456. अवधिज्ञान के कितने भेद हैं? उ. अवधिज्ञान के दो भेद हैं
(1) भवप्रत्ययिक-भवहेतुक अवधिज्ञान।
(2) क्षायोपशमिक-अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान। 457. भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान किनके होता है?
उ. देवता और नारक—इन दोनों के अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक होता है।
1. यह अवधिज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा से है। जब तक नारक और देव नरकगति और देवगति
में रहते हैं तब तक ही यह ज्ञान उनके साथ रहता है।
104 कर्म-दर्शन