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है । कर्म परमाणु सहकारी का काम करते हैं। विष और अमृत, पथ्य और अपथ्य भोजन को कुछ भी ज्ञान नहीं होता फिर भी जीव के संयोग से उनकी वैसी परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही खाने वाले को इष्ट. या अनिष्ट फल मिल जाता है।
352.
क्या कर्म के अशुभ फल को रोका जा सकता है ?
उ. जप, ध्यान, स्वाध्याय आदि शुभ प्रवृत्ति से अशुभ फल को रोका जा सकता है। जप आदि से कर्म-निर्जरा होती है। जब कर्मों का निर्जरण हो जाता है, तब कर्मों के फल देने की बात स्वतः समाप्त हो जाती है।
353.
क्या उदय के बिना बंधे हुए कर्म फल दे सकते हैं?
उ. उदय के बिना बंधे हुए कर्म फल नहीं दे सकते। फल देने की अवस्था मात्र उदयकाल ही है। उसी समय वे जीव को सुख - दुःख का अनुभव करवाते
हैं।
354.
क्या कर्म के उदय के बिना भी कर्म का बंध हो सकता है ?
उ. उदय के बिना कर्म का बंध नहीं होता । संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का उदय चलता है और प्रतिक्षण बंध भी होता है।
355. कर्म उदय में चल रहा है, किन्तु उसका बंध नहीं हो रहा है। क्या ऐसा भी हो सकता है ?
उ. बंध के लिए उदय जरूरी है पर उदय के समय बंध हो ही, यह जरूरी नहीं हैं। दसवें गुणस्थान में मोह का उदय है पर बंध नहीं। 11वें तथा 12वें गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कर्म का उदय रहता है पर मोह के उदय के अभाव में उनका बंध नहीं होता है। नाम गोत्र कर्म का उदय सभी गुणस्थानों में है पर दसवें गुणस्थान के आगे ये बंधते नहीं है। वेदनीय कर्म का उदय सभी गुणस्थानों में है पर वह 14वें गुणस्थान में नहीं बंधता है। आयुष्य कर्म का उदय तो जीवन भर रहता पर बंध जीवन में एक बार ही होता है (अगले भव के आयुष्य का) । 14वें गुणस्थान में चार अघाति कर्मों का उदय रहता है पर कोई भी कर्म नहीं बंधता ।
356.
क्या ऐसी भी कोई कर्म प्रकृति है, जिसका बंध हुए बिना अनन्त काल बीत गया ?
उ. तीर्थंकर नाम, आहारक नाम कर्म आदि कुछ ऐसी प्रकृतियां हैं जिन्हें बांधे बिना अनन्तकाल बीत चुका और आगे व्यतीत हो सकता है। इन प्रकृतियों को अभवी कभी नहीं बांधता । सम्यक्त्वी जीवों में भी कोई-कोई जीव के
कर्म-दर्शन 81