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दर्शनावरणीय की-5 (पांचों निद्राएं), वेदनीय की दो (साता-असाता), मोहनीय की-23 (16 कषाय और भय, जुगुप्सा को छोड़कर सात, नौ कषाय), आयुकर्म की 4, नामकर्म की 55 (औदारिक, वैक्रिय, आहारक-तीन शरीर, इन तीन शरीरों के अंगोपांग, छह संस्थान, छ: संहनन, पांच जाति, चार गति, शुभ-अशुभ विहायो गति, चार आनुपूर्वी
आतप, उद्योत, त्रस दशक और स्थावर दशक) गोत्र कर्म की-2 ये 91
प्रकृतियां परावर्तमान हैं। 232. अपरावर्तमान प्रकृति किसे कहते हैं? उ. किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा बंधोदय दोनों को रोके बिना
जिस प्रकृति के बंध, उदय या दोनों होते हैं, वे अपरावर्तमान हैं। उपरोक्त 91 प्रकृतियों के सिवाय शेष 29 प्रकृतियां अपरावर्तमान हैं। ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय 4, मोहनीय की 3 (भय, जुगप्सा, मिथ्यात्व), नामकर्म की 12 (वर्ण चतुष्क, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, पराघात, उच्छ्वास और तीर्थंकर नाम),
अन्तराय की 51 233. पुण्य कर्म की कितनी प्रकृतियां हैं? उ. पुण्य कर्म की 46 प्रकृतियां हैं।
सातवेदनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, हास्य, पुरुषवेद, रति मोहनीय, आयुष्य त्रिक् (तिर्यंच, मनुष्य, देव), देवगति, देवानुपूर्वी, मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पांच शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण), तीन अंगोपांग (औदारिक, वैक्रिय, आहारक), वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस संस्थान, शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश, निर्माण और तीर्थंकर नाम तथा उच्च गोत्र—ये 46 पुण्य कर्म की प्रकृतियां हैं।
234. पाप कर्म की कितनी प्रकृतियां हैं? उ. पाप प्रकृतियां 82 हैं
ज्ञानावरण-5, दर्शनावरण-9, वेदनीय-1 (असाता), मोहनीय-26 (चारित्र मोह-25, दर्शनमोह-1), आयुष्य-1 (नरक), नाम-34, गोत्र-1
(नीच), अन्तराय-5। ये 82 पाप प्रकृतियां हैं। दर्शन मोहनीय की तीन 50 कर्म-दर्शन