________________
योग) योग अशुभ नहीं होते हैं अत: उससे केवल (योग से) शुभ का ही बंध होता है पर दसवें गुणस्थान तक कषाय रहने से अशुभ का भी बंध होता है। 11वें, 12वें तथा 13वें गुणस्थानों में मोह का उदय एवं अस्तित्व न होने से पाप का बंध नहीं होता है। योग से केवल दो समय की स्थिति का सात वेदनीय कर्म का ही बंध होता है। 14वें गुणस्थान में योग न होने
से कर्म बंध होता ही नहीं है। 287. बंध से क्या नये कर्मों का भी बंध होता है?
उ. बंध से कर्मों का बंध नहीं होता। वह तो केवल बंधनात्मक अवस्था मात्र है। 288. फिर बंध को बाधक क्यों माना गया? उ. बंध से आत्मा विकृत तो नहीं होती, पर बंधन स्वयं बाधा है। जब तक बंध
है, तब तक ही संसार है। 289. बंध से पूर्व कर्म वर्गणा ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों में विभक्त होती है? उ. नहीं। बंधते समय केवल कर्म वर्गणा आकर्षित होती है, फिर प्रकृति का
निर्धारण होता है। जैसी प्रवृत्ति होती है वैसी प्रकृति निर्धारित हो जाती है। 290. क्या बंधी हुई कर्म वर्गणा का परोक्षज्ञानी ज्ञान या अनुभव कर सकते हैं? उ. परोक्षज्ञानी बंध का ज्ञान या अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि वर्गणा
चतुःस्पर्शी है। 291. क्या बंध आत्मा की स्वतंत्र क्रिया है? उ. बंध के दो प्रकार भी हैं-अशुभ बंध और शुभ बंध। अशुभ बंध की
स्वतंत्र क्रिया है। शुभ बंध की स्वतंत्र क्रिया नहीं है, वह तो निर्जरा की
क्रिया का ही प्रासंगिक फल है। 292. कर्म बंध के हेतु कौन-कौन से हैं? उ. प्रत्येक कर्म-बंध के कई हेतु हैं। संक्षेप में वे इस प्रकार हैं
ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञान और ज्ञानी के प्रति असद् व्यवहार। दर्शनावरणीय कर्म-दर्शन और दर्शनी के प्रति असद् व्यवहार। वेदनीय कर्म-दुःख देने और न देने की प्रवृत्ति। मोहनीय कर्म-कषाय और नोकषायजन्य प्रवृत्ति।
आयुष्य कर्म(1) नरकायुष्य-क्रूर व्यवहार। (2) तिर्यञ्चायुष्य-वंचनापूर्ण व्यवहार। (3) मनुष्य आयुष्य-ऋजु व्यवहार। (4) देवायुष्य-संयत व्यवहार।
66 कर्म-दर्शन