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प्रकृतियां मानी जाए तो चौरासी पाप प्रकृतियां होती हैं। दर्शन मोहनीय की मूल प्रकृति एक मिथ्यात्व ही है। सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय प्रकृति का स्वतंत्र बंध नहीं होता। ये दोनों प्रकृतियां मिथ्यात्व के पुद्गलों
का शोधित रूप हैं। 235. सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय को पाप प्रकृतियों में क्यों नहीं लिया
गया? उ. ये दोनों प्रकृतियां जीव के सत्ता रूप में विद्यमान रहती हैं पर उनका स्वतंत्र
बंध नहीं होता। ये मिथ्यात्व मोहनीय की क्षीणता से उत्पन्न होती हैं। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि ये दोनों मिथ्यात्व के पुद्गलों का शोधित रूप
हैं इसलिए इन दोनों को पाप प्रकृतियों में नहीं गिना जाता। 236. विपाक के कितने प्रकार हैं? ' उ. विपाक के दो प्रकार हैं-हेतु विपाक और रस विपाक।
* हेतु विपाकी प्रकृतियों के 4 भेद हैं
(1) पुद्गल विपाकी, (2) क्षेत्र विपाकी, (3) भव विपाकी और (4) जीव विपाकी। * रस विपाक के चार भेद हैं
(1) एकस्थानक, (2) द्विस्थानक, (3) त्रिस्थानक, (4) चतु:स्थानक। 237. पुद्गल विपाकी प्रकृति किसे कहते हैं और वे कितनी हैं? उ. जो प्रकृतियां शरीर रूप में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं में अपना फल
देती हैं, वे पुद्गल विपाकी हैं। ऐसी पुद्गल विपाकी प्रकृतियां 36 हैं1. निर्माण, 2. स्थिर, 3. अस्थिर, 4. अगुरुलघु, 5. शुभ, 6. अशुभ, 7. तैजस, 8. कार्मण, 9. वर्ण, 10. गंध, 11. रस, 12. स्पर्श, 13-15. औदारिक आदि तीन शरीर, 16-18. तीन अंगोपांग, 19-24. छह संस्थान, 25-30. छह संहनन, 31. उपघात, 32. साधारण, 33.
प्रत्येक, 34. उद्योत, 35. आतप और 36. पराघात। 238. क्षेत्रविपाकी प्रकृति किसे कहते हैं और वे कितनी हैं? उ. आकाश प्रदेश रूप क्षेत्र में जो प्रकृति मुख्य रूप से अपना फल देती है,
वह क्षेत्रविपाकी है। आनुपूर्वी नामकर्म क्षेत्रविपाकी है। नरकानुपूर्वी, मनुष्यआनुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और देवानुपूर्वी, ये चारों प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं। जब जीव परभव के लिए गमन करता है, तब विग्रहगति के अन्तराल
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कम-दर्शन 51