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चोटकी तरह उन्होंने व्यक्त किया । सत्यके कहने में संकोच करना मानवताके प्रति विश्वासघात करना है। ऐसा पण्डितजीका सदैव विश्वास रहा है।
वे सदैव प्रसिद्धि और प्रशंसाके दूर भागते रहे हैं। पर वर्तमानमें जैन समाजमें जो प्रगति और गतिविधियां चल रही हैं, उनमें पण्डितजीका सदैव ही सहयोग प्राप्त होता रहा है। असलमें, ऐसे व्यक्ति धर्म और समाजके कार्यमें विशेष सहयोगी नहीं हो पाते, जिनमें दूसरोंको अपने पीछे चलानेकी शक्ति नहीं या दूसरोंके पीछे चलनेकी शक्ति न हो। पण्डितजीमें दोनों गुण प्रचुर मात्रामें विकसित हुए हैं। इसलिये उनके सहयोगियोंकी संख्या विशाल है।
प्रायः लोग युवावस्था या बुढ़ापेका समय शरीरसे मानते हैं। पर उनकी यह धारणा गलत है। नित्य नव तरंगित रहनेवाला उल्लास भरा मन सदा ही युवा रहता है। आज भी जब पण्डितजी मंचपर बोलने खड़े होते हैं, तो उनमें पूर्ण युवोचित उत्साह प्रगट होता है और ओजपूर्ण वाणी सुनकर बुढ़ापेकी बात भूल जाते हैं । आपकी सम्पूर्ण साधना, श्रद्धा, ज्ञान और आचरणका पवित्र संगम रही है। पंडितजी सदैव कहते हैं-सम्पूर्ण समाज एक नौकापर सवार है जहाँ सबके हित-अहित बराबर है। यदि एक पार होगा, तो सब पार होंगे । यदि एक डूबा, तो सब डूब जायेंगे । इसलिये हमें व्यक्तिगत स्वार्थोंसे ऊपर उठकर सामूहिक स्वार्थकी बात सोचनी पड़ेगी। पर आज तो यह परिस्थिति है कि नावके एक कोने में बैठा एक आदमी यह चाहता है कि दूसरा डूब जाये, दूसरा यह चाहता है कि पहला डूब जाय । समूचे समाजका अस्तित्व एक ही शरीर जैसा है। शरीरके किसी अंगमें रोग होनेपर या चोट लगनेपर कष्टका अनुभव पूरे शरीरको होता है।
पंडितजी जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ आचार्य हैं और समचा जैन सिद्धान्त अनेकान्तमय है। अनेकान्तका उद्देश्य सम्पूर्ण विरोधोंका परिहार करना है। पर आजके अनेकान्तवादी स्वयं ही निश्चय और व्यवहार, निमित्त-उपादानके पक्षापक्षमय आग्रहसे आपसमें विवाद कर राग-द्वेष बढ़ाकर स्वयं ही विभाजित हो रहे हैं । विवादने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि एक पक्षवाले दूसरोंको जैन ही माननेको तैयार नहीं हैं । अब तो इस विरोधने क्षोभक रूप भी धारण कर लिया है। यह विचार भेदभात्र न रहकर मन्दिर और आगम ग्रन्थों तक जा पहुंचा है। इस विवादमें पंडितजीने एक समन्वयकारी दृष्टिकोण उपस्थित किया है। इससे आचार्य परम्पराके साथ अपने पूज्य गुरु गणेशप्रसादजी वर्णीके विचारोंका पूरा समर्थन हआ है। अपने भाषणोंमें तथा जैन संदेशके माध्यमसे समय-समयपर उन्होंने स्पष्ट विचार प्रगट किये है तथा स्वयं सोनगढ़ जाकर विशाल जन-समूहके सामने प्रकट किया कि जैन सिद्धान्तका रहस्य समझने में जो भूल हो रही है, उसे समझा जाये । केवल शुद्ध, बुद्ध, आत्माके वर्णन करनेसे सांसारिक आत्मा शुद्ध-बुद्ध नहीं हो सकती । कंचनको शुद्ध करनेके लिए उसे तपाया जाता है । जैनधर्मने केवल साध्यके लक्ष्यका वर्णन नहीं किया, बल्कि उसके साधनोंपर भी पूरा जोर दिया है। यदि साधनोंकी शुद्धि न मानी जाय, तो उन परिग्रह वस्त्रधारी साधुओंको क्यों न सम्यक् माना जावे । पंडितजीने कहा था “जबतक संयोगी जोवन है, तबतक निमित्तको अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। निमित्तके बिना कार्यकारण भाव भी नहीं बनेगा और कार्यकारण भाव नहीं माना जावेगा, तो जैनधर्मकी वैज्ञानिकता ही समाप्त हो जायेगी। सात तत्त्वोंका विवेचन पूर्ण वैज्ञानिक है और यह जैनधर्मका प्राण है । उन सात तत्त्वोंके सिद्धान्तको व्यवहार सम्यकदर्शन कहते हैं जो निश्चय सम्यकदर्शनका निमित्त कारण है। इसे हेय कैसे कहा जा सकता है।" इसी प्रकार पुण्य-पाप सम्बन्धी विवादका भी पंडितजीने उचित समाधान किया था।
चरित्रधारी जैन दिगम्बर साधु सम्यक चरित्रके आश्रयभत निमित्त कारण हैं। यदि इस निमित्तको हम सर्वथा अकिंचित्कर मानकर बैठ जाते हैं, तो उसे फिर कुछ करनेकी जरूरत भी न होगी। उपादान
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