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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
अज्ञानीजन कहीं न कहीं से अपने भ्रम की खुराक ग्रहण कर ही लेते हैं, यही संसार का बहुत विचित्र आश्चर्य है। मुझे इस बात का गौरव है कि मैंने भी इस परम्परा को तोड़ा है। यद्यपि जैनदर्शन के अनुसन्धाता को परिश्रम किसी से कम नहीं करना पड़ता है, परन्तु वह आसव व बन्ध तत्व की तरह प्रायः हेय सा रहता है। अनुसन्धान का विगुल बजाने वाली संस्थाओं के पास जाने पर मैंने अपनी आवाज दबी ही पायी, शायद उनके तेज विगुल मेरी आवाज न सुन सके हों। खैर, शोध के इस विषय पर प्रवृत्ति एक अज्ञात अपराध बोध की तरह संकेत करती रही, और गुरुजनों के असहयोग व उपेक्षा की काकचेप्टा निरन्तर उस अपराधबोध को जाग्रत करती रही कि शायद जैनदर्शन पर शोध प्रवृत्ति एक गुमनाम अपराध हो।
जैन श्रमण की महिमा में एक कवि ने लिखा है कि "निः संग हैं जो वायु सम, निर्लेप है आकाश से ----- कैसी अलौकिक शूरता। इस पंक्ति ने मेरे हदय को झकझोर दिया, और नये उत्साह का संचार किया। फिर तो सहयोग/सहानुभूति के शब्दों की वैशाखियों को तोडकर निःसंग व निर्लेप सा इस कार्य में जुट गया, जिसका परिणाम ही यह प्रबन्ध है। यदि मैं वैशाखियाँ नहीं तोड़ता तो शायद यह कार्य पूर्ण नहीं कर पाता। सम्भवतः श्रमण स्वरूप पर शोध प्रबन्ध लिखने के लिए उन जैसा श्रम भी करना होगा, गुरु के स्वरूप अनुसंधान में गुरु की भी वैशाखियाँ छोडनी होगी।
जैन दर्शन तो अनेकान्त को स्वीकारता है। अनेकान्त ही आदरणीय है। अतः इस कार्य की प्रवृत्ति में असहयोग व उपेक्षा रूप एकान्त वृत्ति का वर्चस्व स्थापित भी नहीं हो सका है। हमें भी अपने अवशेष पुण्योदय से दि. जैन संस्कृत कालेज जयपुर के पं. चैनसुखदास छात्रावास में इस पाँच फुट के शरीर को तेज गर्मी व वर्षात् से बचाने का अवसर प्राप्त हुआ, अतः हम इसलिए उनके आभारी हैं। साथ ही केन्द्रीय पुस्तकालय राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर, दि. जैन संस्कृत कॉलेज जयपुर, दि. जैन पंचायती बड़ा मंदिर पुस्तकालय जयपुर, सन्मति पुस्तकालय सेठी कॉलोनी जयपुर, के भी आभारी है, तथा दि. जैन अतिशय क्षेत्र महावीर जी का शोध पुस्तकालय तथा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी के भी आभारी हैं कि जिन्होंने हमें सहयोग देकर 15-15 दिन तक आवासादि व्यवस्था के साथ पुस्तकालय सुविधा सुलभ करायी हैं।
शोध के प्रारम्भ में असहयोग के वातावरण को देखकर पुस्तक के रूप में प्रकाशन की कल्पना ज्यादा नहीं थी, परन्तु अनेकों लोगों ने शोध प्रबन्ध को पढ़ा तो उनके द्वारा प्रकाशन की प्रेरणा भी मिली। यहाँ तक कि अनेक लोगों ने तो पुस्तक की अनुमानित राशि भी अग्रिम रूप से देने की पेशकश भी की। मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी कि लोग शोध प्रबन्ध को पढ़ने के बाद इसके प्रकाशन के लिए इतने अधीर हो उठेगें। फिर वातावरण देखकर प्रकाशन का निर्णय ले लिया। इसकी भूमिका लिखाने के लिए पं. फूलचन्द्रजी