Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 20
________________ 19 परन्तु भविष्य की भयंकर चारित्रिक दुर्घटनाओं के प्रति सजगता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक था। फिर भी यदि मेरा ही यह अपराध कहा जावे, तो मेरा वास्तविक अपराध यही है कि मैंने जानबूझ कर आँखों में न पट्टी बांधी है, और न ही अंधेपन को स्वीकारा है। जिसके परिणामस्वरुप मैंने सब कुछ देखा, महसूस किया, और अपने विवेक से उसे लिखा। यदि सत्य लिखना और कहना अपराध है, तो समाज व देश को वे सभी ज्ञान के द्वार विद्यालय बन्द कर देना चाहिए, जिसमें हम जैसे लोगों को दृष्टि मिलती है, साथ ही दृष्टि देने वाले वे सभी "आगम चक्खू" बेंधकर नष्टकर देना चाहिए, जिसके अध्ययन से मुझसे यह अपराध हुआ है। परन्तु ऐसा कोई भी करना/कहना न चाहेगा। यदि इस प्रबन्ध के प्रति कोई दुर्भावना रखता है, तो उससे करबद्ध निवेदन यह भी है कि वह उन लोगों के प्रति कुछ प्रस्ताव भी अवश्य पारित कराये कि ज़िनके सम्बन्ध में यह लिखा गया है। यदि दोषों को कहना निंद्य हो, तो उन दोषों को निरन्तर करते रहना प्रशंसनीय व पूज्य कैसे हो सकता है ? परन्तु आज यही हो रहा है। "उल्टी गंगा बहना" यह मुहावरा सुना तो था, परन्तु देखने को अब मिल मिल रहा है, शायद मिलता भी रहे। अस्तु, हमने अपना कर्तव्य निभाया, पाठक अपनी समझ से स्वयं का कर्तव्य निभायें। मेरे इस प्रयत्न में मुझे कहाँ तक सफलता मिली, यह तो सम्माननीय विज्ञजन ही निर्णय करें, परन्तु मैं अपना यह अनुसन्धान अन्तिम तो नहीं, आंशिक कार्य अवश्य मानता हूँ। इसमें अभी अनेक बिन्दुओं पर शोध कार्य का अवकाश है। लेकिन यह प्रबन्ध भविष्य के अनुसन्धित्सुओं के लिए आधार-स्तम्भ अवश्य होगा-मेरा ऐसा विश्वास है। कृतज्ञता ज्ञापन नवजात शिशु को कुछ करने की शक्ति प्राप्त करने में काफी लोगों का सहयोग अपेक्षित होता है, और वह अपने पुण्यानुसार प्राप्त भी करता है। परन्तु वह शिशु जो अवैध है, निरन्तर तिरस्कृत ही रहता है, यद्यपि उसे भी जन्म की उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता जिससे वैध सन्ताने गुजरा करती हैं, तथापि उसके साथ वैसा व्यवहार नहीं होता। शायद, इसमें यश/अपयशकीर्ति नामकर्म का उदय कारण हैं। यही स्थिति मेरी इस शोध-प्रबन्ध की प्रकृति में रही है। इस विषय पर शोधात्मक अध्ययन की अभिलाषा शैशवावस्था से ही थी। एम.ए. करने के बाद अति उत्साह से जैनदर्शन के इस विषय पर यह सोचकर कि यह विषय उपयोगी व सरल तो रहेगा ही, सहयोग भी खूब मिलेगा। परन्तु संसार में वह सब प्रायः कहाँ होता है, जितना सोचा जाता है। संसार में ऐसे बहुत ही कम पुण्यशाली हैं कि जिनके चिंतन के समानांतर बाह्य संयोग का परिणमन दिखायी देता है, इसे पुण्य का उदय भले ही कहा जावे, परन्तु इससे मान्यता रूपी रथ गहन अंधकार की ओर ही तीव्र गति से बढ़ता है। मैं तो पुण्यशाली उसे कहूँगा कि जिसके चिंतन के समानांतर वस्तु का परिणमन परिणमित नहीं हो रहा है, और उससे संभावित पीड़ा से पीडित नहीं है। इससे उसका भ्रम पुष्ट नहीं होता। क्योंकि भ्रम ही संसार है। तथापि

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