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पंचम अध्याय में शोध प्रबन्ध का उपसंहार है। पूर्व के अध्यायों में श्रमणाचार की जो मीमांसा एवं समीक्षा प्रस्तुत की गयी है, उसका समाहार इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया
इस प्रकार प्रस्तुत अनुशीलन में जैन श्रमण के स्वरूप का आज के आलोक एवं उसमें उठने वाली शंकाओं का समाधान देते हुए जैनधर्म की मूल परम्परा के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषणात्मक, तुलनात्मक एवं समालोचनात्मक अध्ययन की दिशा में मेरा यह विनम्र प्रयास
इस प्रयास के प्रारम्भ में मैंने यह महसूस किया कि इसके लिए जीवन की पवित्रता निष्पक्षता व निर्भीकता अत्यधिक आवश्यक है, और मैंने इन तीनों गुणों के पालन करने का भरसक प्रयत्न किया है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर श्रमण स्वरूप की प्रसंगानुसार समीक्षा करते वक्त किसी पक्ष विशेष के आग्रह से ऊपर ही उठने का प्रयत्न किया है, ताकि विषय की प्रामाणिकता बनी रहे, और इसके लिए जैनधर्म के मूल प्राचीन आगम को देखने का विशेष प्रयत्न भी किया है। यद्यपि मुझे "जैन श्रमागःस्वरुप एवं मीमांसा" विषय पर सन् 88 में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त हो गयी थी। उस दौरान अनेकों लोगों ने शोध प्रबन्ध को पढ़ा था, तथा मुक्तकंठ से प्रशंसा व प्रकाशन की प्रेरणा भी दी थी। तभी से मैं इसके और अधिक से अधिक परिष्कार में जुट गया था। परिष्कार के इसी प्रलोभन के कारण सन् 88 के टाइप हुए "राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर" से पी-एच.डी. उपाधि हेतु स्वीकृत मूल शोध प्रबन्ध से इस प्रकाशित कृति में विविध दृष्टियों से पर्याप्त वैशिष्ट्य रहा है, और कई लोगों के अनुरोध पर थोड़े परिवर्तन के साथ इस पुस्तक का नाम "जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा" रखा है।
इस कृति में श्रमणों के शिथिलाचार के प्रकरण में नामोल्लेख पूर्वक की गयी समीक्षा के सन्दर्भ में कतिपय विद्वानों का कहना था कि यह बात सही होते हुए भी नामोल्लेख नहीं होना चाहिए। इससे लेखक को जोखिम रहती है, श्रमणाचार बदनाम होता है, व पुस्तक आदरणीय नहीं हो पाती है। "यद्यपि सत्यं लोक विरुद्धं न करणीयं न आचरणीयं" - इस भावना को आंशिकतः स्वीकारते हुए, तथा उन सलाहदाता विद्वानों तथा पाठकों को यथायोग्य आदरते हुए भी उनके इन विचारों से मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। प्रश्न यदि जोखिम का उठाया जावे, तो वह प्रासंगिक नहीं है। आज के इस अर्थ प्रधान युग में
जैनदर्शन की निरर्थक डिग्रियाँ लेकर पढ़ना ही आज की सबसे बड़ी जोखिम है। युद्ध के क्षेत्र में सैनिकों को शत्रु सैनिक से ही लड़ना होता है, साथी सैनिक ऐसा करने के लिए आपस में प्रोत्साहित भी करते हैं। परन्तु यहाँ तो एक निष्ठावान विद्वान को समाज में फैल रही अज्ञानता व अनाचार के विरुद्ध तो लड़ना ही होता है, और ऐसा करते हुए उसे तथाकथित विद्वानों से उपहास का पात्र भी बनना होता है। सत्य के प्रति निष्ठावान बने रहने हेतु