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जेनशासन
शान्ति तथा सुखको साधनसामग्री एकत्रित करना ऐसा ही है जैसे किसी कविका यह कहना-"देखो, वंध्याका पुत्र चला आ रहा है'.उसके मस्तकपर आकाशपुष्पोंका मुकुट लगा हुमा है, उसने मृग-तृष्णाके जाल में स्नान किया है, उसके हाथमें खरगोशके सींग का बना धनुष है ।" । ___ इसलिए आधिभौतिक पण्डित इन्द्रियोंको सन्तुष्ट करते हुए जीवन व्यतीत करने की सलाह देते हैं । जब म रशके उपरान्त शरीर भस्म हो जाता है, तब आत्माके पुनरागमनका विचार व्यर्थ और कल्पनामात्र है ।' अतएव, यदि पासमें सम्पत्ति न हो तो भी "ऋणं कृत्वा प्रतं पिबेत' कर्जा लेकर भी घी पियो । स्व. लोकमान्य तिलकने पश्चिमी आधिभौतिक पवितोंको लक्ष्य करके 'घृतं पिबेत्' के स्थान पर 'सुरा पिवत' का पाठ सुझाते हुए यूरोपियन लोगोंकी मद्य-लोलुपताका मधुर उपहास किया है । पाश्चात्य दार्शनिक कांट (Kant) के विषय में कहा जाता है कि एक बार पर्यटन करते हुए घोखसे उसकी छड़ी एक भद्र पुरुषको लग गई । उसने इस प्रमादपूर्ण वृत्तिको देख पूछा-महाशय आप कौन है ? उत्तरमें काटने कहा-"If I owned the whole world, I would give you one-half, if you could answer that question for mc""कदाचित् मैं सम्पूर्ण जगत् का स्वामी होता, तो मैं तुम्हें आघी दुनियाका अधिवि, बता दे, मार तुम स प्रश्नका उत्तर स्वयं दते, कि 'मैं कौन हूं।" भ्रान्तिके कारण यह जीव 'मैं' को नहीं जानता ।।
धर्म-तत्त्वके आश्रमस्वरूप यात्माको आधिभौतिक पण्डित जड़-तत्त्वों के विशेष सम्मिश्रणरूप समझते हैं । उन्हें इस मातका पता नहीं है कि अनुभव और प्रमल युक्तिवाद आत्मा सद्भावको सिद्ध करते है । ज्ञान आत्माको एक ऐसी विशेषता है जो उसके स्वतन्त्र अस्तित्वको सिद्ध करतो है ।
पंचाध्यायीमें लिखा है कि प्रत्येक मात्मामें जो हम्' प्रत्यय-'मैं' पनेका बोध है वह जीवके पृथक् अस्तित्वको सूचित करता है। कार्ट कहता है-"Cogito ergo Sum." I think, therefore I am- विचारता हूँ, इस कारण मेरा अस्तित्व है । प्रो० मेक्समूलर ठीक इसके विपरीत शब्दों द्वारा आत्माका समर्थन
1. "While life is yours, live joyously,
None can escape Death's searching eye, When once this frame of ours they bum,
How shall it e'er again return?" २. वैखो-गीतारहस्य' । ३. "अहंप्रत्ययवेद्यस्यात् जोवस्यास्तित्वमन्वयात् ।"