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१४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ
'सुयशा' :
सुयशा चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ की माता थी । पयरथ नाम के न्यायप्रिय धर्मात्मा राजा ने दीक्षा ग्रहण की तथा साधना करते हुए तीर्थंकर शुभ नाम कर्म का उपार्जन किया । यही जीव प्राणांत देवलोक से च्युत होकर राजा सिंहसेन की रानी सुयशा की कुक्षि में आया । महारानी ने चौदह स्वप्न देखे । भगवान् के जन्म होने पर इन्द्र ने जन्मोत्सव किया। रानी के गर्भकाल के समय राजा ने अपार शत्रु- सैन्य पर विजय प्राप्त की थी अतः कुमार नाम अनन्तनाथ रखा गया रे ! युवावस्था होने पर विवाह तथा राज्यभार संभालने के बाद भगवान् ने - दीक्षा ग्रहण की और तीन वर्ष तक छद्मस्थ रहने के पश्चात् भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ तथा हजार साधुओं के साथ भगवान् ने निर्वाण प्राप्त किया। माता सुयशा मृत्यु के पश्चात् तृतीय सनत्कुमार देवलोक में गई ।
सुव्रता :
रानी सुव्रत के गर्भ में
पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ की माता तथा रत्नपुर के महाप्रतापी महाराजा भानु की रानी का नाम सुव्रता था । पूर्वभव में दृढ़रथ राजा ने न्यायपूर्वक राज्य करने के बाद दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर साधना कर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया । यही जीव अवतरित हुआ । माता ने चौदह स्वप्न देखे गर्भकाल पूर्ण होने पर माता ने एक पुण्यवान् पुत्र को जन्म दिया । इन्द्र ने जन्माभिषेक किया । जब भगवान् गर्भ में थे तब माता को धर्म ध्यान करने की प्रबल इच्छा हुई थी इसलिये बालक का नाम धर्मकुमार रखा गया । बाल्यकाल व्यतीत होने पर यौवन वय में विवाह हुआ तथा राज्य का कर्तव्य निभाकर दीक्षा ग्रहण की । दो वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहने
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१. समवायांग १५७, तीर्थोद्गालिक ४७७ २. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष – ४-४-४७
(ख) चउपन्न महापुरिसचरियं - पृ० १२९ ३. समवायांग १५७, तीर्थोद्गालिक ४७८ ४. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष – पर्व ४, सर्ग ५, पृ० ४९ (ख) आवश्यकचूणि, पूर्व भाग, पृ० ११
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