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२८० : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं साध्वी श्री धनकुवर जी _ आपने अपना अधिकांश समय अपनी गुरुणी साध्वी श्री कुशल कुँवर की सेवा में बिताया तथा मालवा और मेवाड़ में भ्रमण कर धर्मोपदेश दिया। इनको शिष्या परम्परा में श्री फल कँवर जी का नाम मिलता है । अन्य साध्वियों श्री सरसा जी, श्री केसर जी तथा श्री रंभा जी का परिचय प्राप्त नहीं होता है। साध्वी श्री दयाकुवर जी
ये साध्वी कुशल कुवर जी की शिष्या थीं। आगम-ज्ञान और व्याख्यान कुशल थीं। इनका विहार क्षेत्र मालवा, मेवाड़ और बागड़ प्रदेश रहा ।
इनका अन्तिम समय रतलाम में बीता। ये शारीरिक लक्षणों तथा समय की भविष्य द्रष्टा थीं। · इनकी प्रमुख शिष्या साध्वी श्री घीसा जी, श्री झुमकू जी, श्री हीरा जी, श्री गुमना जी, श्री गंगा जी, श्री मानकंवर जी थीं। इनमें घीसा जी और मानकंवर जी को छोड़कर शेष सभी से शिष्य परम्परा आगे चली। साच्ची श्री झुमकू जी
.. आप पिपलोदा निवासी श्री माणकचन्द जी नांदेचा की सुपुत्री थीं। सं० १९२१ में इनकी दीक्षा के उपलक्ष में बड़ी माँ जी ने रतलाम में साहू बावड़ी के समीप एक धर्म स्थानक भेंट दिया था। इन्होंने मालवा और दक्षिण में धर्म प्रचार किया। इनकी १६ शिष्याएँ थीं। साध्वी श्री हीरा जी
ये वस्तुतः ऋषि सम्प्रदाय की सती मंडल में हीरे के समान थीं। इनका जन्म स्थान रतलाम था। पिता का नाम श्री दुलीचन्द जी सुराना और माता का नाम नानूबाई था । बाल्यावस्था में ही इनकी शादी हो चकी थी। माता जी को दीक्षा लेने के लिए प्रवृत्त देखकर ये भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हुईं। पारिवारिक प्रलोभनों के बावजूद भी ये अपने मार्ग से विचलित नहीं हुई। ___ सं० १९३५ में जावरा चातुर्मास पूर्ण करने के बाद जब पूज्य श्री तिलोक ऋषि जी दक्षिण की ओर पधारे तब इन्होंने भी उधर विचरण हेतु प्रस्थान किया। वि० संवत् १९४० में तिलोक ऋषि का देहान्त हो
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