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स्थानकवासी पंजाबी सम्प्रदाय की प्रमुख साध्वियां : ३०१ गई थी। इनका विवाह जम्मू निवासी प्रसिद्ध धनिक श्री देशराज के भाई श्री जयदयाल मल्ल के साथ हुआ था ।
वैराग्य एवं दीक्षा - पार्वती म० स० के सत्संग एवं प्रवचन - उपदेश सेराजीमती का वैराग्य पुष्ट हो गया क्योंकि सं० १९४८ में जब पार्वतीजी म० स्यालकोट आई थीं उसी समय राजीमती भी अपने पिता के घर स्यालकोट आई थीं । यहीं उन्होंने दीक्षा का संकल्प ले लिया । महासती से प्रस्ताव किया तो उन्होंने पति और पिता से आज्ञा लेने का सुझाव दिया । पिता ने इनके वैराग्य की दृढ़ता देखकर अपनी अनुमति दे दी। वे अपनी ससुराल जम्मू गई और अवसर पाकर पति के सम्मुख अपनी दीक्षा का प्रस्ताव प्रस्तुत किया । पति ने बहुत समझाया किन्तु वे अपने निश्चय पर अटल रहीं । अन्ततः पति को भी स्वीकृति देनी पड़ी । सं० १९४८ वैशाख सुदी १३ सोमवार को दीक्षा संस्कार महासती पार्वती जी के सान्निध्य में सोल्लास अमृतसर में सम्पन्न हो गया ।
स्वाध्याय और तप साधना-दीक्षा के पश्चात् आप की रुचि स्वाध्याय, ध्यान, मौन जपादि की ओर अधिकाधिक उन्मुख होती गई । आप घण्टों समाधि लगाकर ध्यान, जप आदि करती रहती थीं । आप परम तितिक्षु थीं । कठोर सर्दी, भयंकर गर्मी आप सहज ढंग से सहन करती थीं । आप एक निस्पृह, एकान्त साधिका थीं। उनका शिष्या - समुदाय छोटा किन्तु महान् प्रभावशाली रहा । इनकी अग्रलिखित छह प्रमुख शिष्यायें थीं- ( १ ) श्री हीरादेवी म० ( २ ) श्री पन्नादेवी म०, ( ३ ) श्री चन्द्रा जी म०, ( ४ ) श्री मानिक देवी जी म०, ( ५ ) श्री रतनदेवी जी म० और ( ६ ) की ईश्वरा देवी जी म० । आज इन शिष्याओं का परिवार स्थानकवासी साध्वी समाज में काफी अध्ययनशील और संयम साधना मार्ग पर अग्रणी तथा जिन शासन की प्रभावना में निपुण माना जाता है ।
प्रवर्तिनी पद - प्रवर्तिनी महासती पार्वती जी शारीरिक अस्वस्थता के कारण अन्तिम दिनों में जालन्धर में स्थिरवास रहीं । उस समय महासती राजीमती ने अपूर्व निष्ठा एवं लगन से गुरुणी की सेवा की । वि० सं० १९९६ में जब प्रवर्तिनी जी का देहावसान हुआ तो उनके पश्चात् उनकी सबसे श्रेष्ठ योग्य शिष्या होने के कारण आपने उस पद को सुशोभित किया ।
स्वर्गारोहण - अब तक आप का दुर्बल हो चला था । अतः आप ने भी
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शरीर भी वृद्धावस्था के कारण जालन्धर में स्थिरवास किया ।
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