Book Title: Jain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Author(s): Hirabai Boradiya
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ ३१० : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलायें ६. महासती कानकँवरजी- आपका जन्म वि० सं० १९३० में श्री डूंगरगढ़ में हुआ । दीक्षा वि० सं० १९४४ में वीदासर में हुई। प्रमुखापद वि० सं० १९८१ को चरू में प्राप्त किया। __अहिंसा और अभय एकार्थक है । जहाँ अभय है वहाँ अहिंसा के भाव फूलते-फलते हैं । महासती कानकुमारीजी का जीवन इन दोनों का समवाय था । उनमें यदि नारी की सुकुमारता थी तो साथ-साथ पौरुष का कठोर अनुबन्ध । एक बार विहार में एक छोटे से गाँव में रुकना पड़ा । रात्रि में वहाँ चोर आये, बाहर सोये कासीद को रस्सी से बाँध दिया और अन्दर घुसे । महासती कानकँवरजी ने सब साध्वियों को जगाकर महामन्त्र का जाप करना शुरू कर दिया । चोर बोले तुम्हारे पास जो कुछ है, वह हमें दे दो । महासती ने पन्ने निकालते हुए कहा-इनमें अमूल्य रत्न भरे हैं । और संगीत की थिरकती हुई स्वर लहरी उनके कानों में गूंजने लगी। उसमें बहुत सुन्दर भाव थे । चोरों का मन बदल गया और अपनी धृष्टता के लिए क्षमा माँगते हुए चले गये। ___कला जीवन का उदात्त पक्ष है । जो जीने की कला में निपुण है, वह सब कलाओं में निपुण है । आपका जीवन कला की स्फुट अभिव्यक्ति था। जीवन कला के साथ-साथ अन्यान्य कलात्मक वस्तुओं के निर्माण का शिक्षण देना भी आप अपना कर्तव्य समझती थीं। अपनी सन्निधि में रहने वाली साध्वियों को सभी कलाएँ सिखातीं। आप कला में बेजोड़ थीं। आपके अनुशासन में "वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि" यह उक्ति चरितार्थ होती थी। स्वाध्याय की विस्मृति न हो जाए, यह स्वाध्याय का गौण पक्ष है। मुख्य पक्ष है तत्सम आनन्दानुभूति । महासती कानकँवरजी स्वाध्याय में लीन रहतीं। ६ आगम, अनेक भजन, स्वतन, थोकड़े कण्ठस्थ थे। रात में घण्टों पुनरावर्तन करतीं। दिन में आगम-वाचन करतीं। वर्ष भर में ३२ आगमों का वाचन हो जाता। आपको साध्वी समाज का अटूट विश्वास प्राप्त था। इसका हेतु था अप्रतिम और निश्छल वात्सल्य । दूसरों को समाधि पहुँचाने में अपना स्वार्थ त्याग करने हेतु सबसे आगे थीं। व्याख्यान शैली प्रभावोत्पादक थी। बड़े-बड़े साधु आपके सामने व्याख्यान देने में सकुचाते थे। आपके प्रति साधुओं के हृदय में बहुमान था। आपके बारे में आचार्यश्री तुलसी ने 'कालू यशोविलास' में लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388