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स्थानकवासी पंजाबी सम्प्रदाय की प्रमुख साध्वियां : २९९ः
वि० सं० १९२४, चैत्र सुदी १ को श्री हीरादेवी जी महाराज के सान्निध्य में कार्धंला के निकटअल्लमगाँव में पार्वती की दीक्षा तीन अन्य कुमारिकाओं के साथ सोल्लास सम्पन्न हुई। । उनकी अध्ययन की प्रवृत्ति प्रबल थी। वे प्राकृत-पालि के साथ आगमों और जैनशास्त्र का गंभीर अध्ययन करना चाहती थीं अतः श्री हीरादेवी म० उन्हें लेकर पुनः आगरा पहँची और कँवरसेन महाराज के निकट सं० १९२५ से २८ तक शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कराया। पार्वती म० ने अंग्रेजी पढ़ना भी प्रारम्भ किया किन्तु गुरुणी ने समझाया कि जितना श्रम अंग्रेजी के लिए करोगी उतना आगम पढ़ने में करने से अधिक लाभ होगा, अतः गुरुणी का संकेत पाकर उन्होंने अपना पूरा समय आगमों के अनुशीलन में ही लगाया।
सम्प्रदाय परिवर्तन-गम्भीर ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् महासती पार्वती महाराज स्वतंत्र चेता बन गयीं। उनकी इच्छा थी कि वे अपने अध्ययन का लाभ जन-जन तक पहुँचावें किन्तु सम्प्रदायगत रूढ़ियाँ और संकीर्णतायें आड़े आ रही थीं। साध्वियों के लिए स्वतन्त्र विहार, प्रवचन, धर्म प्रचार में कई प्रकार को बाधायें थीं अतः उन्होंने सम्प्रदाय परिवर्तन का निश्चय किया और पंजाब के पूज्य अमरसिंह जी के सम्प्रदाय से सं० १९२९ के मगसर वदि १३ को नाता जोड़ लिया। आप इस सम्प्रदाय में महासती खूबाँजी तथा महासती मेलोजी की अनुवर्तिनी बनीं । सं० १९३० में आपने गुरुणी जी के साथ देहली से पंजाब-अमृतसर, स्यालकोट, जम्मू आदि तक विहार किया और धर्म प्रचार किया। - चातुर्मास, व्रत, उपवास-आपने सं० १९३० में जम्मू और ३१ में होशियारपुर में चातुर्मास किया। यहाँ भक्ष्याभक्ष विषय पर अपने तर्कों से इन्होंने आत्माराम जी महाराज को चमत्कृत कर दिया । उन दिनों पंजाब में स्वामी दयानन्द सरस्वती का बड़ा प्रभाव था। वे मूर्तिपूजा का खंडन, रूढ़ियों का विरोध, स्त्री-शिक्षा, अछूतोद्धार आदि का प्रचार करके वास्तविक वैदिक धर्म का स्वरूप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे थे । इनकी बहुत सी बातें स्थानकवासी सम्प्रदाय से मेल खाती थीं। दोनों सम्प्रदाय सुधारवादी थे, मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं करते थे अतः दोनों में कुछ समानताओं के बावजूद कभी-कभी प्रतिस्पर्धा भी होती थी, पारस्परिक वाद-विवाद होते थे। इन शास्त्रार्थों में महासती पार्वती जी अपनी ओजस्वो वाणी से अपना पक्ष बड़े आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करती थीं। उनकी धर्म
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