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२९२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं अमरचंद जी था। करीब नौ वर्ष की वय में श्री लाडूजी से चैत्र शु० ३ (तीज ) सं० १९४७ में दीक्षित होकर श्री मलाजी की शिष्या बनीं। इन्हें साधारण ज्ञान था। मालवा इनका विहार क्षेत्र रहा । इनकी तीन शिष्याएँ हुईं-(१) श्रीधापू जी, (२) श्री सूडा जी एवं ( ३ ) श्री सुमतिकुंवर जी। साध्वी श्री ( बड़े .) हमीराजी
ये साध्वी श्री लछमा जी से दीक्षा ग्रहण कर उनकी शिष्या बनीं। मालवा और बागड़ प्रान्त इनके विहार क्षेत्र रहे ।
इनकी पाँच शिष्याएँ हुई-(१) श्री छोटा जी, (२) श्री जमना जी, (३) श्री हुलासकुंवर जी, (४) श्री मानकुंवर जी और (५) श्री रंभा जी। साध्वी श्री रंभाजी और उनकी परम्परा
इनका जन्म प्रतापगढ़-निवासी श्री घासीलाल जी पोरवाड़ की धर्मपत्नी श्रीमती रुक्माबाई की पुत्री के रूप में हुआ। नौ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ और तेरह वर्ष की उम्र में वैधव्य की प्राप्ति हो गयी। दो वर्ष पश्चात् माता-पिता से अनुमति पाकर अपने पैतृक गाँव में ही श्री (बड़े) हमीरा जी से दीक्षित हुई।
सं० १९९१ की चैत्रवदि ७ (सप्तमी ) के दिन पूना में प्रवर्तिनी पद मिला।
मालवा, बागड़, गुजरात, महाराष्ट्र, खानदेश आदि प्रान्त इनकी, विहार भूमि रही।
सं० २००२ की ज्येष्ठ शु० १५ ( पूर्णिमा) सोमवार को इनका स्वर्गवास हो गया। ___ इनकी १८ शिष्याएँ हुई। ( १) श्री पानकुंवर जी, (२) श्री राजकुंवर जी, (३) श्री रामकुंवर जी, (४) श्री केसर जी, (५) श्री गुलाबकुंवर जी, (६) श्री जतन कुंवर जी, (७) श्री सुन्दरकवर जी, (८) श्री जसकुंवर जी, (९) श्री सूरज कुंवर जी, (१०) श्री विजय कुंवर जी, (११) श्री जयकुंवर जी, (१२) श्री जड़ावकुंवर जी, (१३) श्री रतनकुवर जी, ( १४ ) श्री प्रेमकुंवर जी, (१५) श्री फूलकुवर जी, (१६) श्री बसन्तकुवर जी, (१७) श्री चन्द्रकुवर जी और ( १८) श्रो आनन्दकूवर जी। इनमें से निम्न की शिष्या परम्परा चली।
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