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प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियों एवं विदुषी महिलाएँ : १७
कुम्भ की रानी का नाम प्रभावती था । पूर्वभव के महाराजा महाबल का जीव तीर्थंकर गोत्र बाँधकर अनुत्तर विमान से च्यव कर महारानी प्रभावती को कुक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ । माता ने चौदह शुभ स्वप्न देखे | तीन मास बीतने पर प्रभावती को दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं जो पंचवर्ण-पुष्पों की शय्या में शयन करती हैं तथा विचरती हैं । अपनी रानी के इस प्रकार के दोहद को राजा कुम्भ ने प्रसन्नता से पूर्ण किया । गर्भकाल पूर्ण होने पर उन्होंने सुखपूर्वक उन्नीसवें तीर्थंकर को पुत्री रूप में जन्म दिया । पुष्पशैय्या पर सोने का दोहद होने के कारण पिता ने " मल्ली” नाम रखा । विशिष्ट ज्ञान की धारिका होने से लोग " मल्ली भगवती" भी कहते थे । मल्लीनाथ को केवल ज्ञान प्राप्त होने पर माता भी धर्मध्यान में लीन रही और चौथे माहेन्द्र देवलोक में उत्पन्न हुई ।
मल्लिनाथ :
उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ ने महिला योनि में ही केवल ज्ञान तथा मोक्ष को प्राप्त किया जिसका विवरण निम्न है :
पूर्वभव में मल्लिकुमारी का जीव वीतशोका नगरी में महाबल नाम के राजा के रूप में था । धर्मघोष मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर उसने अपने अनन्य छः मित्रों के साथ दोक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के पश्चात् सातों मित्र तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । एक समय सबने मिलकर यह संकल्प किया कि हम सब एक ही प्रकार को तपस्या करेंगे, ताकि हम सबका साथ आगे के जीवन में भी इसी प्रकार बना रहे । अन्त में नियमानुसार सब ने एक-सी तपस्या प्रारम्भ कर दी । पर महाबल मुनि ने सबसे ज्येष्ठ बने रहने की लालसा से अधिक तप किया । फलतः अन्य साधु जब पारणा करते, तब वे अपनी तपस्या को आगे बढ़ा देते और उस दिन पारणा नहीं करते । इस प्रकार छद्म ( कपट)
१. आ० आनन्द ऋषिजी - ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र - अध्याय ८, पृ० ६५
२. समवायांग, १५७, ज्ञाताधर्मकथा ६४-७८; स्थानांग २२९, आवश्यकनियुक्ति २२१-२२६, तीर्थोद्गालिक १९३
३. ( क ) – वही पृ० २३७ ( हिन्दी अनुवाद)
(ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुष - पर्व ६, सर्ग ६ ( गुजराती अनुवाद)
अ० भि० २१
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