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अध्याय द्वितीय
तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ
जैन आगमों में वर्णित चौबीस तीर्थंकरों में महावीर अंतिम तीर्थंकर हुए, जिन्होंने तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा स्थापित चतुविध संघ को और सुदृढ़ बनाया । वर्तमान में जैन संघ को "महावीर के शासन" के नाम से संबोधित किया जाता है । इस व्यवस्था ने जैन धर्मावलंबियों के चारों वर्ग - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं को एक सूत्र में बाँध दिया । इस व्यवस्था को सुदृढ़ तथा व्यावहारिक बनाने के लिये महावीर ने त्यागी तथा गृहस्थों के कर्तव्यों का निर्धारण किया ।
इस चतुर्विध संघ की प्रमुख विशेषता यह है कि साधु वर्ग श्रावकों को आत्मानुरागी बनने की प्रेरणा देता है तथा श्रावक त्यागी धर्मगुरुओं को अल्प आवश्यकताओं की पूर्ति करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझता है । इसी प्रकार साध्वी समुदाय भी श्राविकाओं के ज्ञानवर्धन में सहयोग देकर उन्हें आत्म-उन्नति की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है तथा गृहस्थ श्राविकाएँ भी उनकी सुविधाएं एवं संरक्षण आदि का ध्यान रखना अपना परम धार्मिक कर्तव्य समझती हैं । महावीर की संघ व्यवस्था में पुरुषों को जो आध्यात्मिक अधिकार उपलब्ध थे, महिलाओं को भी वे सब प्राप्त थे, क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा समान है तथा केवल कर्मों के कारण वह भिन्न योनि में जन्म लेता है । अतः इन आध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद बुद्धि नहीं रखा जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियाँ थीं । वर्धमान के धर्म संघ में चौदह हजार श्रमण तथा छत्तीस हजार श्रमणियाँ थीं ।' संख्या देखते हुए अतिशयोक्ति हो ऐसा भास होता है, परन्तु व्यापक दृष्टि से तत्त्वों की मीमांसा की जाये तो सत्य परिस्थिति का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन होता है, उदाहरणस्वरूप – तत्कालीन राजनैतिक वातावरण में राजाओं के वैभव में सम्मिलित रानियों का नगण्य अस्तित्व, युद्ध में अनेक वीरों की मृत्यु, श्रेष्ठि पुत्रों का अनेक कन्याओं के साथ विवाह एवं समाज में महिलाओं १. मुनि नथमलजी – जैन दर्शन मनन और मीमांसा - पृ० ३०
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समवायांग, समवाय ३६
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