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खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा और समकालीन साध्वियां : २३९ विहार, साधु-साध्वी समुदाय, स्थानीय श्रावकों के नाम, राजाओं के नाम, प्रतिद्वन्द्वी धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ, तीर्थोद्धार आदि अनेक बातों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। सम्प्रति लेख में इसी गुर्वावली के आधार पर खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा की एक झाँकी प्रस्तुत है। ___ वर्धमानसूरि खरतरगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासी आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरधरा में सुविहितमार्गीय मुनियों के विहार को सम्भव बनाया। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपर नाम धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, धर्मदेव, सहदेव आदि अनेक मुनियों का उल्लेख तो हमें मिलता है, परन्तु इनके द्वारा किसी महिला को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिला है। खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली' से ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वगच्छीय मरुदेवी प्रवर्तिनी को आशापल्ली में उसके संथारा के समय सल्लेखना पाठ सुनाया था। जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों द्वारा धोलका निवासी भक्त वाछिग और उसकी पत्नी बाहड़देवी के पुत्र सोमचन्द्र को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा देने हेतु प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है । यही बालक आगे चलकर जिनदत्तसूरि के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना।
जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित साध्वियों का उल्लेख तो नहीं मिलता है, परन्तु इनके समय में भी खरतरगच्छ में साध्वी संघ की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
जिनवल्लभसूरि का अत्यधिक समय विधिमार्ग के प्रसार में ही व्यतीत हुआ । उनके उपदेशों से गुजरात, राजस्थान और मालवा के अनेक स्थानों पर विधिचैत्यों का निर्माण हुआ। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के कुछ माह पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् सोमचन्द्रगणि को जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया गया।
जिनदत्तसूरि द्वारा अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख मिलता है। उनके वरदहस्त से बागड़ देश में श्रीमति, जिनमति, पूर्वश्री, ज्ञानश्री और जिनश्री को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई । ३ जिनदत्तसूरि अत्यन्त १. जिनविजय जी, संपा० खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० ५ (बम्बई-१९५६) २. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० १४-१५, बम्बई १९५६ ३. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली पृ० १५ (बम्बई १९५६)।
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