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२७६ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं साध्वी तीजवरजी
आपकी जन्मस्थलो उदयपुर के निकट तिरपाल गाँव में थी। आपका पाणिग्रहण उसी गाँव के सेठ रोडमलजी के साथ सम्पन्न हुआ था। आपके दो पुत्र और एक पुत्री थी। पति के स्वर्गवास होने पर महासतीजी के उपदेश से प्रभावित होकर दो पुत्र और एक पुत्री सहित आपने दीक्षा ग्रहण की। अन्त में एक दिन का संथारा ग्रहण कर आपने देहत्याग दिया। साध्वी सोहनकुवरजी ... आपका जन्म उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में सं० १९४९ ( सन् १८९२ ) में हुआ । आपके पिता का नाम रोडमलजी और माता का नाम गुलाबदेवी था । नौ वर्ष की लघुवय में ही आपका वाग्दान डुलावतो के गुडे के तकतमलजी के साथ हो गया। किन्तु परम विदुषी महासती रायकँवरजी और पं० मुनि नेमीचन्दजी के त्याग-वैराग्ययुक्त उपदेश को श्रवण कर आपमें वैराग्य भावना जागृत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था उनका सम्बन्ध छोड़कर अपनी मातेश्वरी और अपने ज्येष्ठ . भ्राता प्यारेलाल एवं भैरूलाल के साथ क्रमशः महासती रायकँवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी। जिस समय आप प्रवचन करती थीं, विविध आगम के रहस्यों के साथ रूपक, दोहे, कवित्त, श्लोक और उर्दू शायरी का भी यत्र-तत्र उपयोग करती थीं। ___ अध्ययन के साथ ही तप के प्रति आपकी स्वाभाविक रुचि थी। माता के संस्कारों के साथ तप की परम्परा आपको विरासत में मिली थी। आपने अपने जीवन की पवित्रता हेतु अनेक नियम ग्रहण किये थे। अजमेर में सन् १९६३ में श्री वर्द्धमान चन्दनबाला श्रमणी संघ का निर्माण किया गया तथा श्रमणियों के ज्ञान-दर्शन चारित्र के विकास हेतु इक्कोस नियमों का निर्माण किया । उसमें पच्चीस प्रमुख साध्वियों की एक समिति का निर्माण हुआ। चन्दनबाला श्रमणो संघ की प्रवर्तिनी पद पर सर्वानुमति से सोहनकँवरजी को नियुक्त किया गया जो आपकी योग्यता का स्पष्ट प्रतीक था। सं० २०२३ ( सन् १९६६ ) में संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हआ। महासती सोहनकँवरजी की प्रथम शिष्या विदूषी कुसुमवतीजी हैं । उनकी चार शिष्याएँ हैं-(१) चारित्रप्रभाजी, (२) दिव्यप्रभाजी, (३) दर्शनप्रभाजी और (४) पुष्पवतीजी । पुष्पवतीको
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