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खरतरगच्छीय सुखसागरजी महाराज के समुदाय की साध्वी : २४९
(२) प्रवर्तनी लक्ष्मीश्रीजी
इनका निवास स्थान फलोदी था । जीतमल जी गोलेछा की सुपुत्री थीं और कनीरामजी झाबक के पुत्र सरदारमलजी की पत्नी थीं। इनका नाम लक्ष्मीबाई था । बालविधवा हो जाने से आपकी भावना वैराग्य की ओर अग्रसर हुईं । सुखसागरजी महाराज की देशना से प्रतिबोध पाकर सम्वत् १९२४ मिगसर वदी १० को दीक्षा ग्रहण कीं । इन्होंने अनेक महिलाओं को -दीक्षा दी थीं । सम्वत् १९३१ में पुण्यश्री को दीक्षा दी थीं । आप कब तक विद्यमान रहीं, कब स्वर्गवास हुआ और कहाँ हुआ ? इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है ।
(३) प्रवर्तनी पुण्यश्रीजी
जैसलमेर के निकट गिरासर नामक गाँव में पारख गोत्रीय जोतमलजी की धर्मपत्नी कुन्दनदेवी ने सम्वत् १९१५ वैशाख सुदी छठ को एक बालिका - को जन्म दिया उसका नाम पन्नीबाई रखा गया । ११ वर्ष की उम्र में ही फलोदी निवासी दौलतचन्द झाबक के साथ पत्नीबाई का विवाह हुआ । किन्तु, विवाह के १८ दिन पश्चात् ही पत्नीबाई को दुर्देव से वैधव्य जीवन स्वीकार करना पड़ा | बड़ी कठिनता से दीक्षा की अनुमति प्राप्त कर संवत् १९३१ में गणनायक सुखसागरजी महाराज के हाथों दीक्षा ग्रहण कर - लक्ष्मीश्रीजी की शिष्या बनीं और इनका नाम पुण्यश्री रखा गया ।
सम्वत् १९३१ से लेकर १९७६ तक ४५ वर्ष पर्यन्त स्थान-स्थान पर वचरण करती हुईं, धर्मोपदेश देती हुईं शासन की सेवा और खरतरगच्छ की वृद्धि में सतत् संलग्न रहीं । इस अवधि में आपकी निश्रा में ११६ दीक्षाएँ विभिन्न स्थानों पर हुईं और वे भी बड़े महोत्सव के साथ। इन ११६ दीक्षाओं में से ४९ तो इन्हीं की शिष्याएँ थीं और शेष इनकी शिष्याओं की और प्रशिष्याओं की शिष्याएँ बनी थीं । गणनायक सुखसागरजी महांराज का वह स्वप्न कि "कुछ बछड़ों के साथ गायों का झुण्ड देखा" वह पुण्यश्री के समय में साकार रूप ले गया ।
१९७२ से १९७६ के आपके चातुर्मास जयपुर में ही हुए । अन्तिम अवस्था में आप जयपुर आईं। जयपुर का पानी आपको लग गया । फलतः अस्वस्थ रहने लगीं, शरीर व्याधिग्रस्त और जर्जर हो गया । धर्माराधन और शास्त्र वग करती हुईं संवत् १९७६ फाल्गुन सुदी १० को जयपुर में आप स्वर्गवासिनी हुईं । मोहनबाडी में आपका दाहसंस्कार किया गया ।
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