Book Title: Jain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Author(s): Hirabai Boradiya
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 334
________________ स्थानकवासी आचार्य अमरसिंहजी को परम्परा की जैन साध्वियां : २६७, साध्वी जसकुँवर .. आपका जन्म सं० १९५३ में पदराडा ग्राम में हुआ। आपने महासती आनन्दकुँवर के पास सं० १९८५ में कम्बोल ग्राम में दीक्षा ग्रहण की और महासती अभयकुँवरजी की सेवा में रहने से वे उन्हें अपनी गुरुणी की तरह. मानती थीं। आपमें सेवा की भावना अत्यधिक थी। सं० २०३३ में आपका स्वर्गवास भीम ग्राम में हुआ। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक चली। ___महासती नवलाजी की तृतीय शिष्या केसरकुंवरजी थीं। उनकी सुशिष्या छगनकुँवर हुईं। साध्वी छगनकुँवर ___आप कुशलगढ़ के सन्निकट केलवाड़े ग्राम की निवासिनी थीं । लघुवय में ही आपका पाणिग्रहण हो गया था। किन्तु कुछ समय के पश्चात् पति का देहान्त हो जाने से आपके अन्तमानस में धार्मिक साधना के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई। आप तीर्थयात्रा के दौरान महासती गुलाबकुँवर के उपदेश को सुनकर अति प्रभावित हुईं और बाद में उन्हीं से दोक्षा ग्रहण कर लीं। छगनकुंवरजी की अनेक शिष्यायें थीं जिनमें फूलकुँवर प्रमुख थीं। उदयपुर में वि० सं० १९६५ में संथारे द्वारा आपका स्वर्गवास हुआ। साध्वी ज्ञानकुंवर • महासती छगनकुवरजी की एक शिष्या ज्ञानवर थीं। आपका जन्म वि० सं० १९०५ में उम्मड ग्राम में हुआ और बम्बोरा के शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ था। सं० १९४० में आपने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम हजारीमल रखा गया। आचार्य श्री पूनमचन्दजी तथा महासती छगनकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर आपने १९५० में महासती छगनकुंवरजी के पास जालोट में दीक्षा ग्रहण की। आपके पुत्र ने आगे चलकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेने के उपरान्त उनका नाम ताराचन्दजी महाराज रखा गया। कालांतर में ताराचन्दजी उपाध्याय श्री पुष्करमुनि के गुरु बने। ज्ञानकुंवरजी बहुत ही सेवाभावी तथा तपोनिष्ठा साध्वी थीं। महासती श्रीगुलाबकुँवरजी के उदयपुर विराजने पर आपने उनकी वर्षों तक सेवा की और वि० सं० १९८७ में उदयपुर में संथारा सहित प्राण त्याग दिया। साध्वी फूलकुवरजी ___ आपका जन्म उदयपुर राज्य के दुलावतों के गुढ़े में वि० सं० १९२१ में हुआ। आपके पिता का नाम भगवानचन्दजी और माता का नाम: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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