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प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : ५१ दूसरा तथ्य यह भी प्रकट होता है कि संभवतः उस काल की अधिकांश राजकन्यायें योग्य वर न मिलने के कारण आजन्म अविवाहित रहने को मजबूर होती थीं। अतः वे सब पार्श्वनाथ के प्रवचन से प्रभावित होकर दीक्षित हुई परन्तु अतृप्त इच्छाओं का दमन करने में सफल नहीं हो सकी। इन मानसिक कुण्ठाओं के कारण वे पूनः जन्म धारण करती रहीं और महावीर के समवसरण में आकर भी अपनी वैक्रिय शक्ति से नाट्यकला-प्रदर्शन की और अपने स्थान पर लौट गई थीं।' तीर्थकर पार्श्वनाथ की संघ-व्यवस्था में नारी का स्थान : __ आज से लगभग दो हजार आठ सौ वर्ष पूर्व ऐतिहासिक पुरुष पार्श्वनाथ ने अर्हत् धर्म को परिष्कृत किया तथा उसे सुव्यवस्थित करने के लिये संघ की स्थापना की। उन्होंने यह भी बतलाया कि मनुष्य किसी विशेष कुल, जाति या धर्म में उत्पन्न होने से ही उच्च अथवा नीच नहीं होता है। उन्होंने अपने संघ को चार भागों में विभक्त किया। उनके समय में भी महिलाओं को धार्मिक शिक्षण प्राप्त करने का अधिकार था, तथा पुष्पचूला नाम की साध्वी के नेतृत्व में सोलह हजार महिलाओं ने दीक्षित होकर आत्मकल्याण किया ।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय चार महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का साधु वर्ग कट्टरता से पालन करता था। इन चारों महाव्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत का पृथक् स्थान नहीं था। इसका मतलब यह नहीं कि पार्श्वनाथ की श्रमण-परम्परा में ब्रह्मचर्य उपेक्षित था अथवा ब्रह्मचर्य की साधना को गौण माना जाता हो । ब्रह्मचर्य-पालन भी अन्य व्रतों की तरह अनिवार्य था । पार्श्वनाथ कालीन संत विज्ञ थे अतः वे स्त्री को भी परिग्रह के अन्तर्गत समझकर बहिद्धादान में ही स्त्री और परिग्रह दोनों का अन्तर्भाव कर लेते थे। अतः धन-धान्य आदि की तरह स्त्री को भी बाह्य वस्तु मान कर त्याग करते थे ।
पार्श्वनाथ के बाद देश-काल आदि के प्रभाव से साधु-साध्वियों में कुछ शिथिलता आ गई थी। अतः महावीर ने संघ को सुदृढ़ करने के लिये ब्रह्मचर्य को अलग से स्थान दिया । साधुओं के ब्रह्मचर्य महाव्रत १. (क) आनन्दऋषि-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध वर्ग १-१०
(ख) आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग १, पृ० ३२१ ___२. (क) धर्मानंद कौशाम्बी-पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म-पृ० १७-१८
(ख) कल्पसूत्र १०१
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