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८- १५वीं शताब्दी की जैन साध्वियों एवं महिलाएँ : १९१
सभी विषयों पर ग्रन्थ रचना कर जैनधर्म के साहित्य का भंडार भर दिया । २१ वर्ष की उम्र में वि. सं. १९६६ में आप आचार्य पद से विभूषित हुए और 'आचार्य हेमचन्द्र' नाम दिया गया ।
प्रभावक चरित्र नामक प्रबन्ध ग्रन्थ में यह वर्णन प्राप्त होता है कि पुत्र के आचार्य पद प्राप्त करने के पश्चात् पाहिनी साध्वी समुदाय में दीक्षित हो गईं और बहुत काल तक चारित्र धर्म पालन कर वि. सं. ० १२११ के लगभग अपनी इहलीला समाप्त कीं ।
तत्कालीन गुजरात में जैन संघ के विशेष वर्चस्व की स्थापना मन्द्राचार्य ने की। भारतीय धर्मपरायण महिला के मन में पुत्रैषणा के साथ ही पुत्र के धार्मिक इष्ट मंगल और कीर्तिमान होने की भावना स्वाभाविक ही रहती है । इसीलिये माता पाहिनी ने अपने हृदय के टुकड़े को जैन धर्म की सेवा के लिये समर्पित किया । माता ने अपने वात्सल्य को व्यापक धरातल देते हुए धर्म शासन की वृद्धि की भावना से प्रेरित होकर संकुचित पुत्र स्नेह की भावना त्यागकर समष्टिवादी दृष्टि अपनाई । यह बहुत बड़ा त्याग एक धार्मिक माता ने किया, जो कि मनोवैज्ञानिक धरातल पर भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है ।
जैन धर्म में सूर्य के समान सदा चमकने वाले इस महान् विद्वान् के प्रभाव से जैन धर्म व संघ का सभी दिशाओं में विकास हुआ ।
आचार्य हेमचन्द्र जैसे प्रकाण्ड विद्वान् को जन्म देने वाली माता धन्य है | पाहिनी जैसी माता के त्याग ने ही पुत्र को इतिहास में सदा के लिए अमर कर दिया ।
काश्मीरी :
गुजरात (पाटण) के सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल को माता काश्मीरी देवी राजा त्रिभुवनपाल की पत्नी थी । माता ने बाल्यकाल से ही पुत्र को कठिनाइयों का सामना करने की शिक्षा दी थी । माता को यह आशंका थी कि कहीं पुत्र का अमंगल न हो इसलिये पुत्र वियोग को सहन कर वह अपना जोवन अधिकतर धर्मध्यान में व्यतीत करती थी । काश्मीरी देवो के प्रेमलदेवी और देवलदेवो नामक दो विदुषो कन्याएँ
१. डॉ० जी० बुलर, हेमचन्द्राचार्य - जीवनचरित्र, पृ० १८
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