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२२६ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं कड़ी आर्यिका वीरमती माताजी हैं। इनका गृहस्थावस्था का नाम उमादेवी है। उमादेवी के पिता देवप्पा और माता गंगाबाई थीं। इनके पति सखाराम पाटिल ग्राम मांगुर जिला बेलगाँव (कर्नाटक) के रहने वाले थे।
सांसारिक जीवन से मुक्त होने के लिए मुनिसंघ के साथ विहार करके श्रीमती उमादेवी ने आचार्य देशभूषण से मांगूर (कर्नाटक) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर वीरमती नाम को प्राप्त कर जीवन को सार्थक बनाया। आर्यिका विशुद्धमती माता जी
जबलपुर के रीठी नामक ग्राम में श्रीमान् सिंघई लक्ष्मणलाल जैन एवं मथुराबाई ने वि० संवत् १९८६ [१२।४।१९९९ ई०] में एक सौम्य बालिका को जन्म दिया। माता-पिता ने अपनी बालिका का सुमित्राबाई नामकरण किया । परमपूज्य आचार्य १०८ श्री धर्मसागर महाराज के सन् १९६२ सागर (म० प्र०) चातुर्मास में महाराजश्री की शान्तवृत्ति एवं संघस्थ १०८ श्री सन्मतिसागरजी महाराज के मार्मिक सम्बोधन से सुमित्राबाई की वैराग्य भावना उद्दीप्त हो गयी । अनन्तर अध्यात्मवेत्ता दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागर महाराज से सं० २०२१ श्रावण शुक्ला सप्तमी दि. १४ अगस्त १९६४ ई० के दिन अतिशय क्षेत्र पपौरा (म० प्र०) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की जिससे सुमित्राबाई की वैराग्यभावना फलवती हुई और विशुद्धमती से अभिधान को प्राप्त कर अपना जीवन धन्य किया । आर्यिका विशुद्धमती की मौलिक कृतियाँ-(१) श्रुत निकुञ्ज के किञ्चित् प्रसून, (२) गुरु-गौरव, (३) श्रावक सोपान और बारह भावना हैं । आर्यिका शान्तमती माताजी
सद्गुरु आचार्यश्री १०८ विमलसागर महाराज से कार्तिक शुक्ला २ संवत् २०२९ (२।११।१९७२) के शुभ दिन सम्मेदशिखर जी के परमपावन स्थल पर शान्तमती माता जी ने आर्यिका के महाव्रतों को ग्रहण कर मानव पर्याय का उपयुक्त उपयोग किया । आपका जन्म कोल्हापुर गाँव कबलापुर जिला सांगली (महाराष्ट्र) में हुआ था। आप व्रत, उपवास आदि नियम पूर्वक आत्मशुद्धि में तत्पर हैं। आयिका शीतलमती जी
धर्म पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता। प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक समय में उसे अपनाया जा सकता है। इसमें बाल-वृद्ध का अन्तर नहीं है । आर्यिका शीतलमती जी ने बचपन से ही धर्म का आश्रय लिया।
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