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८-१५वीं शताब्दी की जैन साध्वियां एवं महिलाएँ : १९९
रूढ़ियों पर कठोर प्रहार कर उन्हें समाप्त किया जैसे - महिलाओं को धर्म संघ में पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं थी, शास्त्र पढ़ने का अधिकार भी पुरुष के समान नहीं था तथा साध्वियों को व्याख्यान देने का अधिकार भी प्राप्त नहीं था । तत्कालीन मुसलमान शासकों के पर्दा प्रथा के कारण या अन्य सामाजिक अथवा राजनैतिक कारणों से महिलाओं के कई अधिकार जो उन्हें महावीर के काल में प्राप्त थे, प्रायः लुप्तप्राय हो गये थे । गुरु आडम्बर के कारण भी महिलाएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खो चुकी थीं ।
लोकाशाह का मुख्य उद्देश्य साधुओं में व्याप्त शिथिलता को दूर करना था तथा वे संघ की इस कमी को सुधारने के लिए कटिबद्ध थे । लोकाशाह की इस धार्मिक क्रान्ति से साध्वियों तथा श्राविकाओं को कई अधिकार पुनः प्राप्त हुए, जिसमें व्याख्यान देना, धार्मिक चर्चा करना, ज्ञान-वृद्धि के लिये पठन-पाठन करना इत्यादि मुख्य थे । इस मौलिक क्रान्ति का असर दूर-दूर तक फैला और अनेक साधु-साध्वियाँ एवं श्रावकश्राविकाएँ इस आडम्बर विहीन त्यागमार्ग की ओर आकर्षित हुईं जिससे स्थानकवासी सम्प्रदाय का सूत्रपात हुआ । स्थानकवासी सम्प्रदाय स्थूल क्रिया से सूक्ष्म आत्मचिंतन की ओर जाने की प्रेरणा देता है । त्याग, तप, जप और संयम ही इस परम्परा के मूल तत्त्व हैं । शुद्ध चैतन्य तत्त्व ही इसकी साधना पद्धति का मुख्य लक्ष्य है' ।
लोकाशाह के सुधारवादी आन्दोलन के कारण महिला वर्ग में भी एक नवचेतना का संचार तो हुआ, किन्तु कौनसी प्रमुख महिलाओं ने इस आन्दोलन का साथ दिया, इसका इतिहास प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में आज भी अन्धकार के गर्भ में है । यद्यपि इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप ही अस्तित्व में आये स्थानकवासी और तेरापन्थी सम्प्रदायों में साध्वी वर्ग की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसकी चर्चा हम अग्रिम अध्यायों में करेंगे ।
१. विजय मुनि - श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, पू० ३३
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