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अध्याय षष्टम आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक की
जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ याकिनी-महत्तरा :
राजस्थान के मेवाड़ प्रदेश की राजधानी चित्तौड़, प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध नगरी थी। यहाँ के सिसोदिया राणा बप्पा रावल (ई० सन् ७५०) सर्व धर्मों को समान सन्मान देते थे। उनके समय में चित्तौड़ के एक राजमान्य ब्राह्मण राजपुरोहित थे। वे अपने ज्ञान गर्व के कारण पृथ्वो, जल और आकाश के समस्त विद्वानों से शास्त्रार्थ करने को प्रतिपल तत्पर रहते थे। उस समय गुरु प्रवाह (विद्वान् व्यक्ति को गुरु बनाना) भी बहुत प्रबल था, तथा प्रत्येक ज्ञानी व्यक्ति किसी महान् विद्वान् को अपना गुरु बनाने में गौरव अनुभव करता था। हरिभद्रजी के सामने भी यह समस्या थी कि किसे गुरु बनाया जाय, जो उनसे अधिक विद्वान् हो। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "जिस व्यक्ति के बोले हए श्लोक या गाथा का मैं अर्थ नहीं समझ सकूँगा, उसे अपना गुरु मान्य करूँगा।" उनके इस बौद्धिक अभिमान का खंडन जैन धर्म की साध्वी याकिनी महत्तरा ने किया था ।२
एक दिन वे जैन साध्वियों के उपाश्रय के पास से होकर जा रहे थे। उस समय उनके कानों में एक मधुर स्वर सुनाई दिया-एक साध्वीजी प्राकृत में एक श्लोक रट रही थीं
'चक्किदुगं, हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्को'
१. (क) डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन-प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
पृ० २१६ (ख) मुनि सुशीलकुमार-जैन धर्म का इतिहास-पृ० १९३ (ग) डॉ० हीरालाल जैन-भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
पृ० ७३ २. अगरचन्दजी नाहटा-०५० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ-पृ० ५७४-५७५. ३. मुनि सुशीलकुमार जैन धर्म का इतिहास,-पृ० १९४
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