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८-१५वीं शताब्दी की जैन साध्वियों एवं विदुषी महिलाएँ : १८५
वर्षों के परिश्रम से लिखी कादम्बरी के समान सुन्दर कृति को इस प्रकार अग्नि में भस्म होते देख धनपाल अत्यन्त उद्विग्न हो गये । अपने पिता को ग्लानियुक्त तथा उदास देखकर उनकी नौ वर्ष की बाल पण्डिता पुत्री ने उनके उद्वेग का कारण पूछा धनपाल ने राजदरबार की घटना कह सुनाई । बालिका ने उन्हें सान्त्वना देते हुए धीरज बँधाया तथा तिलकमंजरी की मूल प्रति का आधा भाग अपनी स्मरण शक्ति से -बोलकर सुनाया जिसे पिता ने लिख लिया । धनपाल ने शेष आधे भाग की पुनः रचना करके तिलकमंजरी को सम्पूर्ण किया । इसप्रकार इस अद्भुत प्रतिभाशालिनी बालिका ने एक बहुमूल्य ग्रंथ को लुप्त होने से बचा लिया ।
सुन्दरी :
कवि धनपाल को बहिन सुन्दरी भो प्राकृत व संस्कृत भाषा की ज्ञाता एवं विद्वान् महिला थी । उस समय संस्कृत के अमरकोष जैसा प्राकृत में कोई ग्रन्थ नहीं था । धनपाल ने वि० सं० १०२९ ( ई०९७ ) में धारा नगरी में 'पाइयलच्छीनाममाला' नामक प्राकृतकोष की रचना की । बहिन सुन्दरी ने इसी ग्रन्थ से प्राकृत भाषा का अभ्यास किया । इसलिए प्राकृत भाषा के इस अमर ग्रन्थ को रचना को प्रेरणास्रोत सुन्दरी को माना जा सकता है ।
अतः यह निर्विवाद है कि धनपाल की पुत्री व बहिन दोनों विदुषी तथा संस्कृत, प्राकृत भाषा को ज्ञाता थीं और साहित्य रचना में रुचि रखती थीं ।
इस प्रकार दसवीं शताब्दी में भी साहित्य, भाषा तथा धर्म के क्षेत्र में श्राविकाओं और साध्वियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । वे जैन धर्म पर दृढ़ आस्था रखती थीं और प्राकृत भाषा का अध्ययन और उन्नयन करती थीं ।
गुणासाध्वी :
आप एक उच्चकोटि की विदुषी साध्वी थीं । इनका जन्म गुजरात में हुआ था । आप संस्कृत भाषा की प्रकाण्ड विद्वान् थीं । आपने उससमय
१. प्रबन्धचिन्तामणि ( धनपाल प्रबन्ध) सिंधी जैन ग्रन्थमाला, पृ० ५१ २. ( अ ) ब्र० १० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४३७
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