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"१२६ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ
थे तथा उससे सहायता लेते थे” । श्रेष्ठी ने भद्रा को अच्छी तरह समझाया कि मैंने बाह्य शारीरिक प्रयोजन से ही उसका सहयोग लिया था । इस पर भद्रा संतुष्ट हुई तथा पूर्ववत् पति की सेवा करने लगी। एक बार आचार्य धर्मघोष राजगृह आये उनके प्रवचन से प्रभावित होकर धन्य सार्थवाह ने दीक्षा ग्रहण की तथा उग्र तपस्या करके कालान्तर में सौधर्म देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए' ।
भद्रा मूल्यांकन - इस रूपक कथा के माध्यम से त्यागी वर्ग को सचेत किया गया है कि भोजन केवल शरीर रक्षण के लिये किया जाना चाहिये ताकि शरीर से साधु-जीवन और नियमों का पालन हो सके ।
रोहिणी :
रोहिणी श्रेणिक राजा की राजधानी राजगृह के सार्थवाह धन्या की सबसे छोटी पुत्रवधू थी । एक समय सार्थवाह ने अपनी चारों पुत्रवधुओं की योग्यता को परीक्षा लेने का विचार किया । उसने कुटुम्बियों तथा ज्ञातिजनों के समक्ष अपनी चारों पुत्रवधुओं को बुलाकर पाँच-पाँच चावल के दाने देते हुए कहा, 'हे पुत्रियों, तुम ये पाँच-पाँच चावल के दाने लो, इन्हें लेकर अनुक्रम से इनका संरक्षण और संवर्द्धन करती रहो तथा जब मैं पुनः माँगें तब मुझे लौटा देना।' इस प्रकार उज्झिका, भोगवती, रक्षिका एवं रोहिणी — उन चारों पुत्रवधुओं को यह आदेश देकर सार्थवाह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगा ।
पाँच वर्ष बाद चारों पुत्रवधुओं को बुलाकर सार्थवाह ने चावल के दाने पुनः लौटाने को कहा । प्रथम ने दाने नष्ट कर दिये थे । द्वितीय ने उन दानों को स्वयं खा लिया था, तृतीय ने एक मंजूषा (पेटी) में चावल के दाने संभालकर रखे थे वह लाकर वापस किए। जब चौथी पुत्रवधू रोहिणी को चावल के दाने लौटाने को कहा तो उसने कहा - ' तात ! आप मुझे बहुत-सी गाड़ियाँ दीजिए जिससे मैं आपको वह पाँच चावल के दाने लौटा सकूं। क्योंकि रोहिणी ने उन पाँच दानों को सेवकों के माध्यम से प्रथम वर्ष में एक छोटी क्यारी में, दूसरे वर्ष खेत में तथा इसी अनुक्रम से बोते हुए पाँच वर्ष में पर्याप्त धन एकत्रित कर लिया था ।
१. ( क ) आनंदऋषिजी - ज्ञाताधमंकथांगसूत्र -अ २, पृ० १४२ - १५४ (ख) हस्तीमलजी मेवाड़ी - आगम के अनमोल रत्न - पृ० ५९२ २. आ० आनन्दऋषिजी - ज्ञाताधर्मकथासूत्र - अ० ७, पृ० २२५
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