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१६२ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं प्रतिष्ठित है। मूर्ति-प्रतिष्ठा का कार्य गृहस्थ अपने कर्मों की निर्जरा करने के लिये करते थे। आचार्यगण श्रावक-श्राविकाओं को इस प्रकार के धार्मिक कार्य करने के लिये प्रोत्साहित करते थे।
स्कंदगुप्त के काल (ई० सन् ४६०) में राजा के उल्लेख सहित जो शिलालेख प्राप्त हुआ है, उसमें उल्लेख है कि पाँच अरहंतों की स्थापना देवरिया जनपद के धनाढ्य श्रावक ने मन्द्र नाम के धर्म-पुरुष से कराई थी और शैल-स्तम्भ खड़ा किया था।
अन्तिम गुप्त राजाओं में देवगुप्त और हरिगुप्त ने संसार त्याग कर दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण को थी ।
उपयुक्त ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि गुप्तकाल में ३०० वर्ष तक जैन धर्म का प्रभाव रहा।
हर्षवर्धन के राज्यकाल में उत्तर भारत में साध्वियों का संघ अपने नियमों का पालन करते हुए विचरता था। उत्तर भारत पर कई शताब्दियों तक विदेशी राजाओं के हमले होते रहे। उत्तरभारतीयों को तीन बार भीषण अकाल तथा अन्य राजनैतिक, सामाजिक आदि कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन सब विषम परिस्थितियों के बावजूद भी चन्दनबाला द्वारा चलाये गये साध्वी संघ का अस्तित्व अक्षुण्ण रहा।
शनैः शनैः राजनैतिक तथा सामाजिक कारणों से जैन धर्म बिहार तथा उड़ीसा आदि प्रान्तों से निकल कर राजस्थान व गुजरात में फैलने लगा।
१. प्रो० कृष्णचन्द्र वाजपेयी-प्राचीन भारतीय संस्कृति-पृ० ५१८
ब्र० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४९८ । डॉ. हीरालाल जैन-भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान-पृ० ३५ ज्ञाताधर्मकथा में तीर्थंकर गोत्र के उपार्जन के लिये बीस स्थानों की आराधना
को माना है। दिगम्बर परम्परा में षोडश भावनाएँ हैं। भाव
समान है। २. आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृ० ६९७ ३. वही। ४. डॉ० कामटे, रिलिजन आफ तीर्थकराज़-जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, पृ०
२१०-२१६
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