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दक्षिण भारत की जैन साध्वियों एवं विदुषी महिलाएँ : १७५
सिका थीं। अपनी सुन्दरता एवं संगीत, वाद्य तथा नृत्य आदि कलाओं में निपुणता के लिये वह विदुषी - रत्न सर्वत्र विख्यात थी। रानी के पितृकुल तथा मातृ-कुल दोनों धर्मपरायण थे । पिता मारसिंगच्यपग्गेडे कट्टर शैव थे । स्वयं महाराजा विष्णुवर्धन इनका बहुत आदर करते थे तथा इन्हें 'उद्वृन- सबति-गन्धवारण' अर्थात् उच्छृङ्खल सोतों को काबू में रखने के लिए 'मतहस्ति' विरुद दिया था । आपके धार्मिक गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव थे, जिनकी यह गृहस्थ शिष्या थीं । इस धर्मात्मा महारानी ने श्रवणबेलगोल में अपने नाम पर 'सवति - गन्धवारण वसति' नाम का एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिनालय बनवाया था। उक्त जिनालय में भगवान् शान्तिनाथ की पाँच फुट ऊँची कलापूर्ण मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी । अपने समय शान्तलदेवी दान के लिए प्रसिद्ध थीं । मन्दिर के लिए एक गाँव का दान तथा अन्य कई छोटे-छोटे दान दिये । महारानी ने जिनाभिषेक के लिए वहाँ गंग-समुद्र नाम के सुन्दर सरोवर का निर्माण करवाया था । महादेवी शान्तलदेवी ने शिवगंगे नामक स्थान में ई० सन् १९२१ में संल्लेखना जैन समाधि मरण की विधि से देहत्याग किया | गन्धवारण- वसति के मण्डप के तीसरे स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में महारानी के स्वर्गगमन की घटना का वर्णन करते हुए उनके गुणों एवं धर्म कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है ।
माचिकव्बे :
आप महारानी शान्तलदेवी की माता और प्रतापी दण्डनायक बलदेव की पुत्री थीं । पति मारसिंगप्य को छोड़कर माचिकब्बे का शेष समस्त परिवार परम जिन भक्त था। पति के अन्य धर्मविश्वासी होते हुए भी यह नारी स्वधर्म की आराधना करने में स्वतंत्र थी । धर्मानुरागी पुत्री शान्तलदेवी के निधन से माता को वह संसार से विरक्त हो गई । अतः उन्होंने
अत्यन्त दु:ख हुआ और श्रवणबेलगोल में जाकर
१. (क) डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन - प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
पृ० १४०
(ख) ब्र० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४७८
(ग) बी० ए० सोलेतर - मिडियेवल जैनिज़्म
(घ) डॉ० हीरालाल जैन - भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान - पृ० ४०
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