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महावीरोत्तर जैन साध्वियां एवं महिलाएं : १५१ स्थितियों से आभास होता है कि प्राचीन काल में साध्वियों का जगहजगह विहार करना तथा चारित्र पालन करते हुए धर्म का उपदेश देना बहुत महत्त्व रखता था। ई० स० पूर्व प्रथम शताब्दी तक जैन साध्वियाँ अविच्छिन्न रूप से महाव्रतों का पालन करती हुई आत्म कल्याण में अपना जीवन व्यतीत करती थीं।
जैन इतिहास में तीर्थंकर महावीर निर्वाण के पश्चात् यह पहला उदाहरण मिलता है जिसमें किसी राजा ने साध्वी को बलात् अपहृत कर राजमहल में बन्दी बनाया हो। इस घटना के पश्चात् भारतीय इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जिसमें किसी जैन साध्वी को राजा अथवा राज्यकर्मचारियों द्वारा अपमानित किया गया हो । साध्वी-मुरूण्ड':
कालकाचार्य ने शक राजाओं की सहायता से उज्जयिनी के गर्दभिल्ल राजा को हराया। उसके पश्चात् वहाँ शक राजाओं ने कुछ वर्षों तक राज्य किया। शक राजाओं के पश्चात् उसके प्रमुख अधिकारी मुरूण्ड ने राज्य सत्ता पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया ।।
विशेषावश्यकभाष्य एवं निशीथचूणि के उल्लेखानुसार मुरूण्डराज (विदेशी शक शासक) के समक्ष उसकी विधवा बहन ने प्रवृजित होने की इच्छा प्रकट की। शक राजा की बहन श्रमण धर्म के सिद्धान्तों से प्रभावित थी। वह संसार त्याग कर निवृत्ति मार्ग अपनाना चाहती थी। मुरूण्डराज उस समय के प्रचलित कई धर्म सम्प्रदायों में सबसे श्रेष्ठ धार्मिक संगठन में अपनी सहोदरा को दीक्षित करना चाहता था।
एक समय मुरूण्डराज ने अपनी महल की खिड़की से देखा कि राजमार्ग पर कुछ कोलाहल हो रहा है। सेवकों से पूछने पर यह विदित हुआ कि एक कृशकाय जैन साध्वी ने अपना वस्त्र-पात्रादि पागल हाथी
१. बृहत्कल्पभाष्य ४१२३-२६, बृहत्कल्पवृत्ति (क्षेमकीर्ति ) पृ० ११२३,
निशीथभाष्य, ४२१५, आवश्यकचूणि द्वि०, पृ० २९१, आवश्यकवृत्ति
(हारिभद्रीय), पृ० ४२४ । २. डॉ० हीरालाल जैन-भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान-पृ० १४६ ३. (क) वाकाटक राजवंश और उसके अभिलेख-१० १९-२०
(ख) आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग २, पृ०४५-५१
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