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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : ११७ पुण्यशाली समझकर भगवान् महावीर जिस दिशा में थे उस दिशा में उनको तीन बार नमस्कार किया है।'
सुलसा का चरित्र हमारे लिए आदर्श का प्रतीक है उसने जैन धर्म का दृढ़ता के साथ पालन किया। आयंबिल जैसे कठोर व्रत के उपरान्त, पुत्रों की प्राप्ति हुई किन्तु उनकी असामयिक मृत्यु से विचलित होकर भी सुलसा ने धर्म मार्ग नहीं छोड़ा। वह लक्षपाक जैसे बहुमूल्य तेल के जमीन पर गिर जाने पर भी विचलित नहीं हुई। इसके अलावा अम्बड़ श्रावक की परीक्षा में सफल होकर उसने महान त्याग का परिचय दिया है । इन्हीं शुभ कर्मों के कारण सुलसा ने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया |
सुलसा मूल्यांकन : महावीर की गृहस्थ श्राविकाओं में सुलसा का नाम विशेष श्रद्धा से लिया जाता है। दानशीला सुलसा श्रावक के बारह व्रतों का सजगता से पालन करती थी। उत्कृष्ट तप-साधना आदि से उसे पुत्र प्राप्ति हुई किन्तु उनकी मृत्यु असमय में ही हो गई। इस असह्य आघात के लगने पर भी वह विचलित हुए बिना धर्म में अडिग रही और भगवान् महावीर के सिद्धान्तों पर अटूट श्रद्धा के साथ संयमबद्ध रही। इन्हीं सब गुणों से आगामी भव चक्र में वह सोलहवें तीर्थंकर पद को प्राप्त करेगी। रेवती :
श्रावस्ती नगर के मेढ़िया ग्राम में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी। वह महावीर के उपदेश व सिद्धान्तों पर विश्वास रखती थी। रेवती
औषधि बनाने की विशेष कला में निपुण थी । वह कई प्रकार की औषधि व पाक बनाकर तैयार रखती थी। आसपास के ग्राम व नगर के कई व्याधिग्रस्त पुरुष, स्त्री व बच्चे उसकी औषधियों का सेवन कर स्वास्थ्यलाभ करते थे । कई साधु व परिव्राजक भी इसके द्वारा बनाई गई औषधि के सेवन से अपने शारीरिक कष्ट दूर करते थे ।
एक समय रेवती ने कूष्मांडफल (कुम्हड़ा ) को संस्कृत करके पाक
१. आवश्यकचूर्णी-भाग २, पृ० १६४ २. स्थानांग, सूत्र ६९१ ३. समवायांगसूत्र, १५९, स्थानांगसूत्र ६९१, स्थानांगवृत्ति (अभयदेव) पृ० ४५६ ४. कल्पसूत्र १३७, स्थानांगसूत्र, ६९१, आवश्यकसूत्र पृ० २८, आवश्यकवृत्ति
( मलयगिरि ) पृ० २०९
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