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तीर्थंकर महावीर के युग की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : ११३ एक समय वह अपनी सहेलियों के साथ नगर के बाहर स्थित जिनालय में गई । वहाँ सब बालिकाएँ पतिवरण का खेल खेलने लगीं। अन्य कन्याओं ने जिनालय के खम्भों को अपना पति मान लिया लेकिन श्रीमती ने भ्रमवश कोने में ध्यानावस्थित खड़े एक मुनि को खम्भा समझकर पति चुन लिया । वास्तव में ये मुनि आर्द्रकुमार थे, जो अनार्य देश के राजकुमार थे, और राजगृह के महामंत्री अभयकुमार से भेंट करने आये थे। आर्द्रकुमार ने साधुत्व अंगीकार कर लिया था। ___ कन्या श्रीमती के साथ विवाह करने हेतु अति आग्रह किये जाने पर भी आर्द्रकुमार ने अपनी साधुवृत्ति नहीं त्यागी और वहाँ से अन्यत्र चले गये। श्रीमती उन्हीं (मुनिवर) को अपना पति मान चुकी थी इसलिये अन्य पुरुष से विवाह करने में अपनी असहमति व्यक्त की।
पिता देवदत्त ने पुत्री के इस प्रण की पूर्ति के लिये घर पर ही सदाव्रत खुलवा दिया। जो भी त्यागी महात्मा नगर में आते वह उन्हें योग्य सामग्री प्रदान करती । एक दिन मुनि आर्द्रकुमार वहाँ आये, श्रीमती ने उन्हें पहिचान लिया । श्रीमती ने बारह वर्ष पूर्व की घटना का स्मरण कराया तथा अपने विवाह के संकल्प को दुहराया । श्रीमती का अटल प्रण तथा स्वयं के कर्मों का भोग जानकर आर्द्रकुमार मुनि ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया।
कालान्तर में उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । आर्द्रकुमार ने अपनी सहधर्मिणी श्रीमती से कहा, "अब यह पुत्र तुम्हारी देख-भाल करेगा और मैं पुनः दीक्षित होना चाहता हूँ"। श्रीमती पति का यह निश्चय जानकर चिन्तित हुई।
जीवन निर्वाह का साधन न होने तथा पुत्र के अल्पवयस्क होने से श्रीमती को पति के इस संकल्प से चिंता होना स्वाभाविक था। अतः जीवनयापन हेतु उसने चरखे पर सूत कातना प्रारम्भ किया। निर्बोध और निर्दोष पुत्र को यह सब परिवर्तन समझ में नहीं आया। एक दिन माँ से चरखा कातने का कारण पूछने पर माँ ने कहा-“हे लाडले, तेरे पिता हम सब को छोड़कर जा रहे हैं, अतः मैं इसी चरखे के सूत से अर्थोपार्जन कर तुम्हारा पालन करूँगी”। इस पर पुत्र ने उस कच्चे सूत को पिता के पैरों में लपेट दिया । पुत्र के सूत रूपी बन्धन ने पिता आर्द्रकुमार को पुनः बारह वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहने को बाध्य कर
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