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७४ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएँ
हार भ्रमण कर रहे थे, आज उन्होंने धनवाह श्रेष्ठी की दासी से आहार ग्रहण किया है । इस समाचार से रानी मृगावती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई ।
इस सुखद संवाद ने रानी मृगावती को सोचने का समय भी नहीं दिया । वे उसी समय रथ में बैठकर श्रेष्ठी धनवाह के निवास पर गईं । वहाँ उन्होंने चन्दना को देखा, जिसके हाथों से मुनिराज ने आहार ग्रहण किया था । चन्दना पुलकित और आनन्द विभोर थी । उसी समय एक: सैनिक ने चन्दना को पहचान लिया । सैनिक ने कहा - "स्वामिन्, यह तो हमारे राजा दधिवाहन की पुत्री वसुमती है।" चन्दना, रानी मृगावती की बड़ी बहन की पुत्री थी । मृगावती ने अपार उत्साह और स्नेह से चन्दना को गले लगाया और उसे अपने साथ राजमहल में ले गईं ।'
रानी मृगावती अनुपम सौन्दर्य को स्वामिनी थी । राजा शतानोक ऐसी रूपवान पत्नी को पाकर अपने को धन्य समझते थे । एक समय कौशाम्बी के राज दरबार में एक युवा चित्रकार आया । वह अपनी कला में इतना प्रवीण था कि किसी व्यक्ति के अंग का एक भाग देखकर भी पूर्ण चित्र बना लेता था — मानो इस विधा में उसे देवी वरदान प्राप्त था । ललितकला प्रेमी राजा शतानीक ने इस अद्भुत चित्रकार को अपने राज्य में आश्रय दिया। एक बार अनायास हो राजमहल की ओर उसकी दृष्टि चली गई । वहाँ उसे दरवाजे में से पैर का अंगूठा दिखाई दिया । उसने अपनी कला-निपुणता से पैर का अंगूठा मात्र देखकर ही सम्पूर्ण चित्र बना लिया । चित्र बनाते समय रंग की एक बूंद चित्रित रूपसी की जाँघ पर गिर पड़ी, उसे पोंछ लिया, परन्तु पुनः रंग वहीं गिरा । अन्ततः कई. बार पोंछने पर भी बंद वहीं गिरती गई तो चित्रकार ने सोचा कि चित्रित व्यक्तित्व की जाँघ पर प्राकृतिक तिल होना चाहिये । अतः उसने उसे वैसा ही रहने दिया । चित्रकार अपनी इस कलाकृति को सजीव करने में रात-दिन लगा रहा। उसे भान ही नहीं था कि उसकी तूलिका से एक अनुपम सुन्दरी का चित्र बन रहा है ।
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अकस्मात् एक दिन राजा शतानीक अपने कला-प्रेम के कारण रंगशाला में आये । चित्रकार ने अपनी सुन्दर कृति पर से पर्दा शतानीक अपनी रानी मृगावती का ऐसा मनमोहक व कर अत्यन्त प्रसन्न हुए । पर जैसे ही वह कलाकार की
१. त्रिषष्टिशलाकापुरुष, पर्व १०, सर्ग ४, पृ० ८८
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हटाया । राजा सजीव चित्र देख प्रशंसा करने लगे :
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