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६० : जैनधर्म को प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं माता ने पुत्र की बलैया लेकर प्यार से छाती से लगाया और 'चोर' नाम से सम्बोधित करने लगी।
शनैः शनैः वर्द्धमान ने यौवन वय में पदार्पण किया। राजमहल के राजरंग, युवा मित्रों को गोष्ठी तथा भौतिक जीवन में उनका मन नहीं रम सका। जब मित्रों व राजमहल की दासियों द्वारा यह संदेश माता त्रिशला तक पहुंचा तब वे व्याकुल हो उठीं । अपने किशोर पुत्र की भौतिक जीवन के प्रति अरुचि देखकर उसके भविष्य के प्रति चिन्ताकुल होकर कुमार वर्द्धमान के पास स्वयं गईं। माता का अभिवादन करने के पश्चात् पुत्र के पूछने पर वात्सल्य भाव से त्रिशला ने कहा, "पुत्र, तुमने यौवन में पदार्पण किया है, अब गृहस्थ जीवन में पदार्पण करो।"
कुमार वर्द्धमान की चिन्तन धारा तो गह-त्याग तथा आत्मकल्याण करने की ओर चल रही थी। वे अपनी अन्तर्व्यथा माता को दिखाकर गृह-त्याग की आज्ञा मांगने का विचार कर रहे थे, पर माता के वात्सल्य स्नेह के सामने वे मौन रहे । पुत्र के अंतर्द्वन्द्व को समझते हुए माता ने पूछा, "पुत्र, तुम क्या चाहते हो ?" इस पर वर्द्धमान बोले, "माता, मैं गृहस्थ जीवन से दूर रहकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हूँ।" इन शब्दों को सुनते हो माता त्रिशला अकल्पनीय पीड़ा से सिहर गई। वह बोली-“कुमार, मैं यह क्या सुन रही हूँ ? रात-रात जागकर जो सपने मैंने संजोये थे, वे क्या इस प्रकार धूमिल हो जायेंगे ? क्या मैं तुम्हें देखे बिना जीवित रह सकूँगी ? क्या मैं महलों में सुख-भोग करूँ और तुम सुकुमार कंचनकाया वाले मेरे लाल, शीत, गर्मी व वर्षा को सहन करो और मैं माता बनकर तुम्हारा यह कष्टपूर्ण जीवन देखती रहूँ ? नहीं। नहीं कुमार, यह कदापि नहीं हो सकता।" ___अनिच्छा होते हुए भी वर्द्धमान ने बहुत नम्रता से माता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। माता त्रिशला पुत्र के इस हृदय परिवर्तन से आनन्द विभोर हो उठीं।
राजा सिद्धार्थ तथा रानी त्रिशला ने एकमत से अपने समकक्ष गौरवान्वित राजवंश की लावण्य एवं गुणों से अलंकृत राजकुमारी यशोदा से अपूर्व धमधाम व सजधज के साथ वर्द्धमान कुमार का विवाह किया।' सर्वगुण सम्पन्न पुत्रवधू यशोदा को पाकर माता त्रिशला स्वयं को धन्य अनुभव करने लगीं। आशा की किरण उन्हें मानो दिखाई देने लगी
१. आवश्यकनियुक्तिभाष्य, पृ० २५९
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