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प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियाँ एवं विदुषी महिलाएँ : ३३ बढ़ा-चढ़ा कर किया। यह सुनकर पद्मनाभ राजा द्रौपदी के रूप, यौवन पर मुग्ध हो गया तथा अपने देवमित्र की आराधना की एवं उसकी विद्या द्वारा द्रौपदी को अपने महल में मँगवा लिया। अपनी रानो बनने का अनुरोध करने पर द्रौपदी ने कहा, "हे राजन्, यदि छः महीने तक कृष्ण मुझे लेने नहीं आयेंगे तो तुम जो कहोगे वही करूँगी"। द्रौपदी निरन्तर षष्ठभक्त' (दो उपवास) और पारणा में आयंबिल तप करने लगी। हस्तिनापुर से कृष्ण तथा पाण्डव भारी सेना लेकर आए अमरकंका नगर पर हमला किया तथा युद्ध में पद्मनाभ को बुरी तरह पराजित किया । राजा पद्मनाभ अपने प्राणों की रक्षाहेतु द्रौपदी की शरण में गया । द्रौपदी ने शरणागत की रक्षा करते हुए उसे अपने भ्राता कृष्ण की शरण में जाने को कहा। अतः अपने किये हुए कर्मों का प्रायश्चित्त करते हुए पद्मनाभ ने कृष्ण तथा पाण्डवों से क्षमा माँगी । द्रौपदी कृष्ण तथा पाण्डवों के साथ पुनः हस्तिनापुर आ गई।
द्रौपदी-मूल्यांकन-ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित अमरकंका नामक सोलहवें अध्याय में द्रौपदी सम्बद्ध कथानक में दो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है । श्रावक-श्राविकाओं को त्यागी वर्ग की सेवा करते समय सावधानी रखना आवश्यक है। इस प्रकार के अविचारी कार्य गृहस्थ महिलाएं न करें इसलिये नागश्री के जीवन के दुःखद उदाहरण दिये गये हैं।
दूसरा, त्यागी वर्ग का अविनय करने पर द्रौपदी को पति से वियोग का कष्ट उठाना पड़ा तथा उसके निवारणार्थ उसने अष्टम तप एवं आयंबिल करके अपने कर्मों का क्षय किया । अतः अशुभ कर्मों के क्षय के लिये त्याग और तपस्या करना आवश्यक है। थावच्चा
द्वारिका के समृद्धशाली श्रेष्ठकुलों में थावच्चा माता का नाम प्रसिद्ध था। उसका पुत्र भी पिता के नाम के बजाय माता के नाम से पहचाना जाने लगा था। पति की अकाल मृत्यु तथा पुत्र के अल्पायु होने पर भी श्रेष्ठि पत्नी थावच्चा ने अपने कुल की प्रतिष्ठा और धाक को उसी प्रकार कायम रखा जैसी कि पूर्व में थी। माता थावच्चा ने अपने पुत्र का बड़े
१. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र-अ० १६, पृ० ४९७,५०० २. वही, पृ० १७९
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