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४८ : जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ श्राविकाओं की व्याधि एवं कष्ट नष्ट होते हैं। इस व्रत को चैत्र एवं आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी से पूर्णिमा तक करते हैं।
नोट-इस अध्याय में बाईस तीर्थकरों की माताओं का वर्णन क्रमशः दिया है इसलिये बीसवें तीर्थंकर मनि सुव्रत स्वामी के समय की महिलाओं का वर्णन अन्त में दिया गया है ।
भगवान् अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) के पश्चात् तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ हुए। आपका समय ईसा से पूर्व लगभग आठवीं शताब्दी माना जाता है। आप भगवान् महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व हुए । प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर आज के इतिहासकार भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानने लगे हैं । वामादेवी :
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की माता वामादेवी वाराणसी के महाराजा अश्वसेन की महारानी थी। पूर्वभव के स्वर्णबाहु का जीव पुण्य प्राप्त कर तोथंकर गोत्रबंध कर महारानी वामा की कुक्षि से अवतरित हुआ। अनिद्रा की अवस्था में माता ने चौदह शुभ स्वप्नों को मुख में प्रवेश करते हुए देखा। रानी स्वप्न दर्शन के पश्चात् जागृत हुई और राजा से स्वप्न दर्शन की बात कही। प्रतिभाशाली पुत्र जन्म लेगा यह जानकर रानी प्रसन्न हुई तथा सावधानीपूर्वक गर्भ का धारण-पालन करती रही। गर्भकाल पूर्ण होने पर पौष कृष्ण दशमी के दिन माता ने सुखपूर्वक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। इन्द्र ने आकर माता को प्रणाम किया तथा पुत्र का जन्म कल्याणक मेरु पर्वत पर सम्पन्न किया। पुत्र जन्म की खुशी में महाराजा ने दस दिनों तक मंगल-महोत्सव मनाया और बारहवें दिन नामकरण संस्कार किया। गर्भावस्था में माता ने अन्धेरी रात में पास (पाव) में चलते हए सपं को देखा परन्तु उससे किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं हुआ। अतः माता-पिता ने बालक का नाम पार्श्वनाथ रखा।
युवावस्था को प्राप्त होने पर माता-पिता ने पुत्र की अनिच्छा होते हुए भी पार्श्व का विवाह कुशस्थल के नरपति प्रसेनजित की कन्या प्रभावती से किया। अहंत धर्म के सिद्धान्तों ( अहिंसा के ) से वे बाल्यकाल से ही
१, आवश्यकनियुक्ति ३८६, प्रज्ञापना ३७, सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ० १२३ २. आ० हस्तीमलजी, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १, पृ० २८६-२८८
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