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३२ : जैनधर्म प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ
पूर्वभव के अशुभ कर्म बंधन के कारण सुकुमालिका का स्पर्श करते ही अन्य पुरुष का शरीर अग्नि के समान जलने लग जाता था । अतः पि सुख प्राप्त नहीं होने पर वह दुःखी रहने लगी और भिक्षुकों को भोजन, वस्त्र आदि का दान देने लगी। एक दिन गोपालिका आर्या अन्य साध्वियों के साथ सुकुमालिका के यहाँ आहार लेने आई । तब श्रेष्ठि कन्या ने अपना दुःख प्रकट करके दुःख से मुक्त होने का उपाय पूछा। साध्वीजी ने तप, त्याग तथा धर्म- ध्यान को हो दुःख से मुक्त होने का साधन बताया । सुकुमालिका ने आत्मकल्याण के लिये श्राविका व्रत धारण किया तथा बाद में दीक्षा ग्रहण की ।"
गोपालिका आर्या की आज्ञा में रह कर बहुत तपस्या जैसे उपवास, बेला, तेला आदि करती हुई सुकुमालिका अपने अशुभ कर्मो की निर्जरा करने लगी । एक समय गोपालिका आर्या की आज्ञा का उल्लंघन करके सुकुमालिका साध्वी संघ के नियमों को त्याग, नगर के बाहर के उद्यान में बेले-बेले का तप करके सूर्य के सन्मुख आतापना लेने लगी । (साध्वी-चर्या में इस प्रकार का तप निषिद्ध है) ।
एक समय उसी उद्यान में नगर की देवदत्ता गणिका को पाँच पुरुषों से सांसारिक भोग भोगते हुए देखकर सुकुमालिका आर्या ने भी इसी प्रकार के भोग भोगने की अभिलाषा की तथा मन में दृढ़ निदान किया । अंत में कई प्रकार को उत्कृष्ट तपस्या करते हुए अर्द्धमास की सल्लेखना करके देह त्याग किया |
यही जीव द्रुपद राजा की चुलना रानी की कुक्षि से पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ जिसका नाम द्रौपदा रखा गया । यौवन वय में प्रवेश करने पर राजा द्रुपद ने पाँच पांडवों से द्रौपदी का विवाह किया । एक समय कच्छुल्ल नारद को आते देख पाँचों पांडवों सहित कुन्ती माता ने उन्हें प्रणाम कर आदर से बहुमूल्य आसन ग्रहण करने की विनती की। उस समय द्रौपदी देवी ने नारद को असंयमी, अविरत तथा पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जानकर उनका आदर नहीं किया । इस अपमान से नारद ने द्रौपदी का अभिमान चूर करने का संकल्प किया। नारद अमरकंका राजधानी के पद्मनाभ राजा के महल में गये । आदर सत्कार के पश्चात् राजा के पूछने पर उन्होंने द्रौपदी के रूप सौन्दर्य का वर्णन खूब
१. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र – अ० १६, पृ० ४६५
२. वही - अ० १६, पृ० ४८७, ३९२
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