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२८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
'मिलता है, जिसमें उसके पुत्र युवराज देववर्मा द्वारा त्रिपर्वत के ऊपर के कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवान् के चैत्यालय की मरम्मत, पूजा और महिमा के लिए यापनीय संघ को दिये जाने का उल्लेख है।' इस अभिलेख के पश्चात् ३०० वर्षों तक हमें यापनीय संघ से सम्बन्धित कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता है, जो अपने आप में एक विचारणीय तथ्य है । इसके पश्चात् ई० सन् ८१२ का राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष का एक अभिलेख प्राप्त होता. है। इस में यापनोय आचार्य कुविलाचार्य के प्रशिष्य एवं विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति का उल्लेख मिलता है। इस लेख में यापनीय नन्दीसंघ और पून्नागवृक्षमलगण एवं श्री कित्याचार्यान्वय का भी उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य अर्ककीति ने शनि के दुष्प्रभाव से ग्रसित पुलिगिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार किया था। इस अभिलेख से अन्य फलित यह निकलता है कि ईसा की नवों शताब्दी के प्रारम्भ में यापनीय आचार्य न केवल मठाधीश बन गये थे अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे। लगभग ९वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में, जोकि 'चिंगलपेट, तमिलनाडु से प्राप्त हुआ है, यापनीय संघ और कुमिलिगण के महावीराचार्य के शिष्य अमरमुदलगुरु का उल्लेख है जिन्होंने देशवल्लभ नाम का एक जिनमन्दिर बनवाया था। इस दानपत्र में यापनीय संघ के साधुओं के भरण-पोषण का भी उल्लेख है। इससे भी यही लगता है कि इस काल तक यापनीय मनि पर्णतया मठाधीश हो चके थे और मठों में हो उनके आहार को व्यवस्था होतो थी। इसके पश्चात् यापनोय संघ से सम्बन्धित एक अन्य दानपत्र पूर्वीचालुक्यवंशीय 'अम्मराज द्वितीय' (९४५ ई०) का है। इसने कटकाभरण जिनालय के लिए मलियपूण्डी नामक ग्राम दान में दिया था। इस मन्दिर के अधिकारी यापनीय संघ 'कोटिमडुवगण' नन्दिगच्छ के गणधर सदृश मुनिवर जिननन्दी के प्रशिष्य मुनिपुगव दिवाकर के शिष्य जिनसदृश गुणसमुद्र महात्मा श्री मन्दिर देव थे। इसके पूर्व के अभिलेख में जहाँ यापनीय नन्दीसंघ ऐसा उल्लेख है, वहाँ इसमें यापनीय संघ नन्दीगच्छ ऐसा उल्लेख है । १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख क्रमांक १०५ । २. वही, भाग २, लेख क्रमांक १२४ । ३. वही, भाग ४, लेख क्रमांक ७० । ४. वही, भाग २, लेख क्रमांक १४३ ।
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