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विषय-प्रवेश : २७
यापनीय संघ के अभिलेखीय साक्ष्य
यापनीय संघ और उसके आचार्यों, भट्टारकों एवं उपासकों के सम्बन्ध में हमें जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं, उनके दो आधार हैं-एक साहित्यिक उल्लेख और दूसरे अभिलेखोय साक्ष्य । इनमें भी अभिलेखीय साक्ष्य अधिक प्रामाणिक कहे जा सकते हैं क्योंकि प्रथम तो वे समकालिक होते हैं, दूसरे इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना अत्यल्प होती है ।। यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हमें अनेक अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं । इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रो० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने 'अनेकान्त' वर्ष २८, किरण १ में यापनीय संघ के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रस्तुत विवेचन का आधार उनका वहो निबन्ध है, किन्तु हमने उन अभिलेखों के मुद्रित रूपों को देखकर अपेक्षित सामग्री को जोड़ा भो है।
यापनीय संघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेख हमें 'कदम्बवंशोय" मृगेशवर्मन् ई० सन् (४७५-४९० ) का प्राप्त होता है। इस अभिलेख में यापनीय, निग्रन्थ एवं कूर्चकों को दिये गये भूमिदान का उल्लेख है।' इसी काल के एक अन्य अभिलेख (ई० सन् ४९७ से ५३७ के मध्य) दामकोत्ति, जयकीत्ति प्रतीहार, निमित्तज्ञान पारगामी आचार्य बन्धुसेन और तपोधन शास्त्रागम विज्ञ कुमारदत्त नामक चार यापनीय आचार्यों एवं मुनियों के उल्लेख हैं। इसमें यापनीयों को तपस्वी (यापनीयास्तपस्विनः) तथा सद्धर्ममार्ग में स्थित (सद्धर्ममार्गस्थित) कहा गया है। आचार्यों के लिए 'सूरि' शब्द का प्रयोग हुआ है। इन दोनों अभिलेखों से यह भी सूचना मिलती है कि राजा ने मन्दिर की पूजा, सुरक्षा और दैनिक देखभाल के साथ-साथ अष्टाह्निका महोत्सव एवं यापनीय साधुओं के भरण-पोषण के लिए दान दिया था, इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीय संघ के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी, अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने के उल्लेख नहीं होते । इसके पश्चात् देवगिरि से कदम्बवंश की दूसरी शाखा के कृष्णवर्मा ( ई० सन् ४७५-४८५ ) के काल का अभिलेख.
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग २, लेख क्रमांक ९९ । २. वहो, भाग २, लेख क्रमांक १००।
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