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सरोवर का दृष्टान्त
जीव सरोवर में नौ तत्त्व दृष्टांत से समझने के लिए कहा है कि जीव एक सरोवर है, इसमें ज्ञान, सुख आदि का निर्मलपानी है । इस में आश्रव की नीक के द्वारा कर्म-कचरा चला आता है, यह है 'अजीव' (जड) द्रव्य । कर्म कचरा जीव के साथ एकमेक होता है, यह 'बन्ध' है । अजीव कर्म कचरे के दो विभाग है,- 'पुण्य' व 'पाप' । कुछ अच्छे वर्णगंध-रसादिवाले कर्म है पुण्य, अशुभवाले है पाप । यों जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध ये छः तत्त्व हुए । अब आश्रव नील के आगे 'संवर' का ढक्कन लगाया जाए तो जीव सरोवर में नया कर्मकचरा आना बंध हो जाता है । एवं 'निर्जरा'-तप का ताप दिया जाए तो पुराने कर्म सुख कर नष्ट होते जाते हैं-वह है 'निर्जरा' । इस प्रकार कर्म सर्वथा नष्ट होने से, व नये कर्म आना रूक जाने से जीव-सरोवर सर्वथा निर्मल हो जाता है, यह है मोक्ष । उपरोक्त छ: के साथ ये तीन तत्त्व संवर-निर्जरा मोक्ष मिलने से ९ तत्त्व होते है ।
कर्म
जैन सिद्धान्त में सामान्यतया कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है, प्रत्येक हलचल चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या शारीरिक हो, कर्म है । किन्तु जैन परम्परा में जब हम कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वहाँ ये क्रियायें तभी कर्म बनती है, जब ये बन्धन का कारण हो । आचार्य देवेन्द्रसूरि का कथन है कि जीव की क्रिया का हेतु ही कर्म है ।२८ पं० सुखलालजी संघवी इसका विवेचन करते हैं कि मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म कहलाता है।
जीव एवं कर्म का अनादि संबंध है, किन्तु उसका अंत किया जा सकता है। जीव के संसार-परिभ्रमण का अंत कर्मो का नाश अथवा क्षय होने पर ही संभव है।
जैन दर्शन में कर्मों के मुख्य आठ भेद प्रसिद्ध है :
१) ज्ञानावरणीय; २) दर्शनावरणीय; ३) वेदनीय; ४) मोहनीय; ५) आयुष्य; ६) नाम; ७) गोत्र और ; ८) अन्तराय ।
जैसे सूर्य बादलों से आच्छादित हो जाता है ठीक वैसे ही आत्मा का मूल स्वरूप भी आठ कर्मरूपी बादलों से आच्छादित हो जाता है, और अज्ञानादि
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