Book Title: Jain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Author(s): Hemrekhashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ २५६ १. भारतवर्ष, २. किम्पुरुष, ३. हरिवर्ष, ४. इलावृत्त, ५. रम्यक ६. हिरण्यमय ७. और उत्तरकूरु' । इनमें इलावृत को छोड़कर शेष ६ का विस्तार उत्तर - दक्षिण में नौ-नौ हजार योजन है । इलावृत वर्ष मेरू के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों ही दिशाओं में नौ-नौ हजार योजन विस्तृत है । इस प्रकार सर्व पर्वतों वर्षो के विस्तार को मिलाने पर जम्बूद्वीप का विस्तार १ लाख योजन प्रमाण हो जाता है । यह जैन मान्यता के समान है । इस द्वीप को सब और से घेरकर मधुरोदक समुद्र अवस्थित है । इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है । मधुरोदक समुद्र से आगे उससे दूने विस्तार वाली स्वर्णमयी भूमि है। उसके आगे १० हजार योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा, लोकालोक पर्वत है । उसको चारों और से वेष्टित तमस्तम स्थित है । इस अण्डकटाह के साथ उपर्युक्त द्वीप-समूहों वाला यह समस्त भूमण्डल ५० करोड़ योजन विस्तार वाला है और इसकी ऊँचाई ७० हजार योजन है । इस भूमण्डल के नीचे दस-दस हजार योजन के ७ पाताल हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं- अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत, महातल, सुतल और पाताल । ये क्रमशः शुक्ल, कृष्ण, अरूण, पीत, शर्करा, शैल और काञ्चन स्वरूप हैं । यहाँ उत्तम भवनों से युक्त भूमियां हैं और यहाँ दानव, दैत्य, यक्ष, एवं नाग आदि निवास करते हैं । ४ पातालों के नीचे विष्णु भगवान का शेष नामक तामस शरीर स्थित है जो अनन्त कहलाता है । यह शरीर सहस्त्र फणों से संयुक्त होकर समस्त भूमण्डल को धारण करके पाताल - मूल में अवस्थित है । कल्पान्त के समय इसके मुख से निकली हुई संकर्षात्मक, रूद्र, विषाग्नि- शिखा तीनों लोकों का भक्षण करती है । नरक - लोक पृथ्वी और जल के नीचे रौरव, सूकर, रौध, ताल, विशासन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, रुधिर, वैतरणी, कृमीश, कृमि-भोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, अलाभक्ष, दारूण, पूयवह वह्नि - ज्वाल, अधः शिरा, सैदेस, कालसूत्र, तम, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ण और अग्रवि इत्यादि नाम वाले अनेक महान भयानक नरक हैं । इनमें पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं। वे वहाँ से निकल कर क्रमश: Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324