Book Title: Jain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Author(s): Hemrekhashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 302
________________ २७५ नहीं थी । यदि कभी कोई जिज्ञासु ब्रह्मलोक जैसे परोक्ष विषय के संबंध में प्रश् करता, तो भगवान् बुद्ध सामान्यतः उसे समझाते कि, परोक्ष-पदार्थों के विषय में चिन्ता नहीं करनी चाहिए" । वे प्रत्यक्ष दुःख, उसके कारण और दुःख - निवारक मार्ग का उपदेश करते । परन्तु जैसे जैसे उनके उपदेश एक धर्म और दर्शन के रूप में परिणत हुए, वैसे-वैसे आचार्यों को स्वर्ग-नरक आदि समस्त परोक्ष पदार्थों का भी विचार करना पडा और उन्हें बौद्ध धर्म में स्थान देना पड़ा । बौद्धपण्डितों ने कथाओं की रचना में जो कौशल दिखाया है, वह अनुपम है । उनका लक्ष्य सदाचार और नीति की शिक्षा प्रदान करना था । उन्होंने अनुभव किया कि, स्वर्ग के सुखों और नरक के दुःखों के कलात्मक वर्णन के समान अन्य कोई ऐसा साधन नहीं है जो सदाचार में निष्ठा उत्पन्न कर सके । अतः उन्होंने इस ध्येय को सन्मुख रखते हुए कथाओं की रचना की, उन्हें इस विषय में अत्यन्त महत्वपूर्ण सफलता भी प्राप्त हुइ । इस आधार पर धीरे-धीरे बौद्ध दर्शन में भी स्वर्ग, नरक संबंधी विचार व्यवस्थित होने लगे । निदान अभिधम्मकाल में हीनयान संप्रदाय में उनका रूप स्थिर हो गया, किन्तु महायान संप्रदाय में उनकी व्यवस्था कुछ भिन्नरूप से हुई । बौद्ध अभिधम्मर में सत्त्वों का विभाजन इन तीन भूमियों में किया गया - कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर । उनमें नारक, तिर्यंच, प्रेत असुर ये चार कामावचर भूमियाँ अपायभूमि हैं, अर्थात् उनमें दुःख की प्रधानता है । मनुष्यों तथा चातुम्महाराजिक, तावर्तिस, याम, तुसित, निम्मानरति, परिनिम्नितवसवत्ति नाम के देव-निकायों का समावेश काम-सुगति नाम की कामवचर भूमि में है । उनमें कामभोग की प्राप्ति होती है, अतः चित्त चंचल रहता है । रूपावचर भूमि में उत्तरोत्तर अधिक सुखवाले सोलह देव निकायों का समावेश है, जिसका विवरण इस प्रकार है :ब्रह्मपारिसज्ज, २. ब्रह्मपुरोहित, ३. महाब्रह्म परित्ताभ, ५. अप्पमाणाभ, ६. आभस्सर परित्तसुभा, ८. अप्पमाणसुभा, ९. सुभकिण्हा वेहप्फला, ११. असञ्जसत्ता, १२ - १६ पाँच प्रथम ध्यान - भूमि में - १. द्वितीय ध्यान-१ - भूमि में -४. तृतीय ध्यान - भूमि में -७ चतुर्थ ध्यान-१ -भूमि में - १०. प्रकार के सुद्धावास । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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