Book Title: Jain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Author(s): Hemrekhashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 304
________________ २७७ व्यवस्था हो, वहाँ वे विशेष रूप से पहुँचते हैं । यदि जो लोग उनका स्मरण कर उन्हें कुछ नहीं देते, तो वे दुःखी होते हैं । जो उन्हें याद कर उन्हें देते हैं, वे उनका आर्शीवाद प्राप्त करते हैं । क्योंकि प्रेतलोक में व्यापार अथवा कृषि की व्यवस्था नहीं है जिससे उन्हें भोजन मिल सके । उनके निमित्त इस लोक में जो कुछ दिया जाता है, उसीके आधार पर उनका जीवन-निर्वाह होता है । इस प्रकार के विवरण पेतवत्थु में उपलब्ध होते हैं । __लोकान्तरिक नरक में भी प्रेतों का निवास है । वहाँ के प्रेत छह कोस ऊँचे हैं। मनुष्यलोक में निझामतण्ह जाति के प्रेत रहते हैं । इनके शरीर में सदा जलन होती रहती है । वे सदा भ्रमणशील होते हैं । इनके अतिरिक्त पालि ग्रंथो में खुप्पिपास, कालंकजक, उतूपजीवी नाम की प्रेत-जातियों का भी उल्लेख है ।६५ जैन-संमत स्वर्ग-नरक : __ जैनों ने समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया हैमनुष्य, तिर्यञ्च, नारक तथा देव । मरने के बाद मनुष्य अपने कर्मानुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में भ्रमण करता है । जैन-सम्मत देव तथा नरकलोक के विषय में ज्ञातव्य बातें ये हैं जैन-मत में देवों के चार निकाय हैं-भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक। __ भवनपति निकाय के देवों का निवास जम्बूद्वीप में स्थित मेरू पर्वत के नीचे उत्तर दक्षिण दिशा में है । व्यन्तर निकाय के देव तीनों लोकों में रहते हैं । ज्योतिष्क निकाय के देव मेरू पर्वत के समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन की ऊँचाई से शुरू होने वाले ज्योतिश्चक्र में रहते हैं । यह ज्योतिश्चक्र वहाँ से लेकर एक सौ दस योजन परिमाण तक है । इस चक्र से भी ऊपर असंख्यात योजन की ऊंचाई के अन्तर उत्तरोत्तर एक दूसरे के ऊपर अवस्थित विमानों में वैमानिक देव रहते हैं । भवनवासी निकाय के देवों के दस भेद हैं-असुरकुमार, नागकुमार, विद्युतकुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, और दिक्कुमार । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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