Book Title: Jain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Author(s): Hemrekhashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 311
________________ २८४ दोझख कायम का नहीं हो सकता, क्योंकि गाथा में ही यस्त्र ३०, ११ और ३१, २० में 'दरेगेम आयू तेमंव्वहो' अथवा लंबे समय का अंधकार कहा है। इस प्रकार उन शास्त्रों में स्तारवी, सोशयोस (भविष्य के तारणहार) का आगमन और 'कशोकेरेती' (जगत् का नवसर्जन) होगा । अतः एक पापी आत्मा हमेंशा ही नरक में नही रहेगी मात्र 'रस्तारवीझ' तक ही रहेगी, ऐसा जरथोश्ती धर्म का शिक्षण है । इस प्रकार स्वर्ग और नरक कायमी नहीं है । कयामत तक ही रहेगे । इस प्रकार जरथोश्ती धर्म में स्वर्ग और नरक की अवधारणा संप्राप्त होती है । वह जैन मत से कुछ साम्य और कुछ वैषम्य लिए हुए हैं । ईस्लाम धर्म में स्वर्ग और नरकईस्लाम धर्म में 'कुरान' को अल्लाह की कलाम प्रस्तुत करती किताब मान्य की गई है । स्वर्ग और नरक के विषय में जरथोश्त धर्म के अनुसार ही मान्य किया गया है, परंतु जब तक कयामत नहीं होती तब तक वह स्वर्ग या नरक में नहीं जा सकता । ऐसा मझहबे ईस्लाम में उल्लेख है ।७ परतुं वह 'बरझख' नामक स्थिति में ही रहता है । उस मरणांत प्राणी के कब्र में मुनहर और नकीर नामक दो फरिश्ते आकर उससे ईमान संबंधी सवाल करते हैं । यदि वह साबित यकीन का मुस्लिम मालुम होता है तो वह शांति से सोता है और भविष्य में जन्नत (स्वर्ग) की खुशाली उसके लिए निर्माण हो जाती है । परंतु यदि उसका यकीन निर्बल होता है और वह दुष्ट दिखाई देता है, तो एक हथोडी से उसे मारा जाता है और धरती के भार से उसे कुचला जाता है, और वह नरक का स्वाद चखता है । मृत्यु के बाद काफिरो की भारी दुर्दशा होती है । वे मुनकर और नकीर नामक फरिश्तों के हाथ से मार खाने के उपरांत बड़े बड़े सर्पो के दंश की वेदना उन्हे सहन करनी पड़ती है। ___ कयामत के बाद मुस्लिमों की मान्यता के अनुसार प्रत्येक मरणांत प्राणी के खंभे के ऊपर 'किराम उल कातिबीन' नामक दो फरिश्ते बैठते हैं । दांये खंभे पर बैठने वाला अच्छे कार्यों का तथा बांये कंधे पर बैठने वाला बुरे कार्यों का हिसाब रखता है । यह पोथी 'नामे मे अअमाल' अथवा कार्यो का चोपडा कहलाता है । यह कयामत के दिन खोला जावेगा । कुरान ४५, २६ के अनुसार प्रत्येक राष्ट्र के अच्छे बुरे कार्यों की अलग किताब रखी जाती है । उसके बाद Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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