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हैं और यहीं से तिर्यंच और नरक-गति में भी जाते हैं-अतः कर्मभूमि है । इस भारतवर्ष के सिवा अन्य क्षेत्र में कर्मभूमि नहीं है ।।
अग्नि-पुराण के एक सौ अठारहवें अध्याय के द्वितीय श्लोक में भी भारतवर्ष को कर्मभूमि कहा गया है । यथा
कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गञ्च गच्छताम् । विष्णु-पुराण के अन्त में कर्मभूमि का उपसंहार करते हुए लिखा है- कि भारतवर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र रहते हैं तथा वे क्रमशः पूजन-पाठ, आयुध-धारण, वाणिज्य-कर्म और सेवादि कार्य करते हैं । यथा
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्या मध्ये शुद्राश्च भागशः ।
इज्याऽऽयुध्वाणिज्याद्यैर्वर्तयन्तो व्यवस्थिताः ॥९॥ इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहा गया है कि भारतवर्ष के सिवाय अन्य सब क्षेत्रों में भोगभूमि है । यथा
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने । __यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः ॥
भावार्थ :- इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है । क्योंकि यहाँ पर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने वाली कर्मभूमि है । भारतभूमि के सिवाय अन्य सर्व क्षेत्र की भूमियाँ तो भोग-भूमिया हैं । क्योंकि वहा पर रहने वाले जीव सदाकाल बिना किसी रोगशोक बाधा के भोगों का उपभोग करते रहते है ।
__मार्कण्डेय-पुराण के. ५५ वे अध्याय के श्लोक २०-२१ में भी भोगभूमि और कर्मभूमि का वर्णन मिलता है ।
इस प्रकार जैन एवं हिन्दु मान्यताओं में कहीं साम्य है, और कहीं वैषम्य
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल जैनागमों में काल के परिवर्तन स्वरूप का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जिस समय मनुष्य की आयु, सम्पत्ति, सुख-समृद्धि एवं भोगोपभोगों की वृद्धि हो उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं और जिस समय उक्त वस्तुओं की हानि या हास हो तो उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं । दोनों प्रकार के कालों का परिवर्तन कर्मभूमि वाली पृथ्वियों में ही होता है-अन्यत्र भोग भूमिवाली पृथ्वियों
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